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________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक शस्त्रातीत यावत् अग्निकाय-परिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। सूत्र-२२२ भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ कितना कहा गया है ? गौतम ! (लवणसमुद्र के सम्बन्ध में सारा वर्णन) पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक कहना चाहिए । हे भगवन्! यह इसी प्रकार है। शतक-५ - उद्देशक-३ सूत्र-२२३ भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई (एक) जालग्रन्थि हो, जिसमें क्रम से गाँठे दी हुई हों, एक के बाद दूसरी अन्तररहित गाँठें लगाई हुई हों, परम्परा से गूंथी हुईं हों, परस्पर गूंथी हुई हों, ऐसी वह जालग्रन्थि परस्पर विस्तार रूप से, परस्पर भाररूप से तथा परस्पर विस्तार और भाररूप से, परस्पर संघटित रूप से यावत् रहती है, वैसे ही बहुत-से जीवों के साथ क्रमशः हजारों-लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत-से आयुष्य परस्पर क्रमशः गूंथे हुए हैं, यावत् परस्पर संलग्न रहते हैं । ऐसी स्थिति में उनमें से एक जीव भी एक समय में दो आयुष्यों को वेदता है । यथा एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और वही जीव, परभव का भी आयुष्य वेदता है । जिस समय इस भव के आयुष्य का वेदन करता है, उसी समय वह जीव परभव के आयुष्य का भी वेदन करता है; यावत् हे भगवन् ! यह किस तरह है? गौतम ! उन अन्यतीर्थिकों ने जो यह कहा है कि...यावत् एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और परभव का-दोनों का आयुष्य वेदता है, उनका यह सब कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत प्ररूपणा करता हूँ कि जैसे कोई एक जालग्रन्थि हो और वह यावत्...परस्पर संघटित रहती है, इसी प्रकार क्रम-पूर्वक बहुत-से सहस्त्रों जन्मों से सम्बन्धित, बहुत-से हजारों आयुष्य, एक-एक जीव के साथ शृंखला की कड़ी के समान परस्पर क्रमशः ग्रथित यावत् रहते हैं । (ऐसा होने से) एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवे-दन करता है, जैसे कि-या तो वह इस भव का ही आयुष्य वेदता है अथवा परभव का ही आयुष्य वेदता है। परन्तु जिस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, और जिस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता । इस भव के आयुष्य का वेदन करने से परभव का आयुष्य नहीं वेदा जाता और परभव के आयुष्य का वेदन करने से इस भव का आयुष्य नहीं वेदा जाता । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का वेदन करता है; वह इस प्रकार या तो इस भव के आयुष्य का, अथवा परभव के आयुष्य का । सूत्र - २२४ भगवन् ! जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव यहीं से आयुष्य-युक्त होकर नरक में जाता है, अथवा आयुष्य रहित होकर जाता है ? गौतम ! वह यहीं से आयुष्ययुक्त होकर नरक में जाता है, परन्तु आयुष्यरहित होकर नरक में नहीं जाता । हे भगवन् ! उस जीव ने वह आयुष्य कहाँ बाँधा ? और उस आयुष्य-सम्बन्धी आचरण कहाँ किया ? गौतम ! उस (नारक) जीव ने वह आयुष्य पूर्वभव में बाँधा था और उस आयुष्य-सम्बन्धी आचरण भी पर्वभव में किया था। नैरयिक के समान यावत वैमानिक तक सभी दण्डकों के विषय में यह बात कहनी चाहिए । भगवन् ! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, क्या वह जीव, उस योनि सम्बन्धी आयुष्य बाँधता है ? जैसे कि जो जीव नरक योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, क्या वह जीव नरकयोनि का आयुष्य बाँधता है, यावत् देवयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव क्या देवयोनि का आयुष्य बाँधता है ? हाँ, गौतम ! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह जीव उस योनिसम्बन्धी आयुष्य को बाँधता है। जैसे कि नरक योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव नरकयोनि का आयुष्य बाँधता है, तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, तिर्यंचयोनि का आयुष्य बाँधता है, मनुष्ययोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव मनुष्ययोनि का आयुष्य बाँधता है यावत् देवयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 92
SR No.034671
Book TitleAgam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size6 MB
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