________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक है, किन्तु परकृत या उभयकृत नहीं । भगवन् ! जो क्रिया की जाती है, वह क्या अनुक्रमपूर्वक की जाती है, या बिना अनुक्रम से ? गौतम ! वह अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं।
भगवन् ! क्या नैरयिकों द्वारा प्राणातिपातक्रिया की जाती है ? हाँ, गौतम ! की जाती है । भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, वह स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? गौतम ! वह यावत् नियम से छहों दिशाओं में की जाती है । भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, वह क्या कृत है अथवा अकृत है ? गौतम ! वह पहले की तरह जानना चाहिए, यावत्-वह अनुक्रमपूर्वक कृत है, अननुपूर्वक नहीं; ऐसा कहना चाहिए। नैरयिकों के समान एकेन्द्रिय को छोडकर यावत वैमानिकों तक सब दण्डकों में कहना चाहिए । एकेन्द्रियों के विषय में सामान्य जीवों की भाँति कहना चाहिए।
प्राणातिपात (क्रिया) के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक इन अठारह ही पापस्थानों के विषय में चौबीस दण्डक कहना। हे भगवन! यह इसी प्रकार है। भगवन ! यह इसी प्रकार है। यों कहकर भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके यावत् विचरते हैं। सूत्र - ७२
उस काल और उस समयमें भगवान महावीर के अन्तेवासी रोह नामक अनगार थे । वे प्रकृति से भद्र, मृदु, विनीत, उपशान्त, अल्प, क्रोध, मान, माया, लोभवाले, अत्यन्त निरहंकारतासम्पन्न, गुरु समाश्रित, किसी को संताप न पहँचाने वाले, विनयमूर्ति थे । वे रोह अनगार ऊर्ध्वजानु और नीचे की ओर सिर झुकाए हुए, ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर के समीप विचरते थे । तत्पश्चात् वह रोह अनगार जातश्रद्ध होकर यावत् भगवान की पर्युपासना करते हुए बोले-भगवन् ! पहले लोक है, और पीछे अलोक है ? अथवा पहले अलोक और पीछे लोक है ? रोह ! लोक और अलोक, पहले भी हैं और पीछे भी हैं । ये दोनों ही शाश्वभाव हैं । हे रोह ! इन दोनों में यह पहला और यह पीछला ऐसा क्रम नहीं है । भगवन् ! पहले जीव और पीछे अजीव है, या पहले अजीव और पीछे जीव है? रोह ! लोक और अलोक के विषय में कहा है वैसा ही यहाँ समझना। इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के विषय में भी जानना।
भगवन् ! पहले अण्डा और फिर मुर्गी है ? या पहले मुर्गी और फिर अण्डा है ? हे रोह ! वह अण्डा कहाँ से आया ? भगवन् ! वह मुर्गी से आया । वह मुर्गी कहाँ से आई ? भगवन् ! वह अण्डे से हुई । इसी प्रकार हे रोह ! मुर्गी और अण्डा पहले भी है, और पीछे भी है । ये दोनों शाश्वतभाव हैं । हे रोह ! इन दोनों में पहले-पीछे का क्रम नहीं है। भगवन् ! पहले लोकान्त और फिर अलोकान्त है ? अथवा पहले अलोकान्त और फिर लोकान्त है ? रोह! इन दोनों में यावत् कोई क्रम नहीं है । भगवन् ! पहले लोकान्त है और फिर सातवा अवकाशान्तर है ? अथवा पहले सातवा अवकाशान्तर है और पीछे लोकान्त है ? हे रोह ! इन दोनों में पहले-पीछे का क्रम नहीं है । इसी प्रकार लोकान्त और सप्तम तनुवात, घनवात, घनोदधि और सातवी पृथ्वी के लिए समझना । इस प्रकार निम्नलिखित स्थानों में से प्रत्येक के साथ लोकान्त को जोड़ना यथासूत्र - ७३,७४
___अवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र), नारक आदि जीव (चौबीस दण्डक के प्राणी), अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या । तथा दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल । सूत्र - ७५
क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? अथवा हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सर्वाद्धा (सर्व काल) पीछे हैं ? जैसे लोकान्त के साथ (पर्वोक्त) सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार अलोकान्त के इन सभी स्थानों को जोड़ना चाहिए।
भगवन ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ? हे रोह ! इसी प्रकार सप्तम अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब स्थानों के साथ जोड़ना चाहिए । इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक समझना चाहिए । भगवन्!
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 25