________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1 '
शतक/ शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक पहले सप्तम तनुवात है और पीछे सप्तम घनवात हैं ? रोह ! यह भी उसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक जानना चाहिए। इस प्रकार ऊपर के एक-एक (स्थान) का संयोग करते हुए और नीचे का जो-जो स्थान हो, उसे छोड़ते हुए पूर्ववत् समझना, यावत् अतीत और अनागत काल और फिर सर्वाद्धा तक, यावत् हे रोह ! इसमें कोई पूर्वापर का क्रम नहीं होगा । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कहकर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे
सूत्र - ७६
|
'हे भगवन्!' ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् कहा- भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है? गौतम आठ प्रकार की वह इस प्रकार है- आकाश के आधार पर वायु (तनुवात) टिका हुआ है; वायु के आधार पर उदधि है; उदधि के आधार पर पृथ्वी है, त्रस और स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं; अजीव जीवों के आधार पर टिके हैं; (सकर्मक जीव ) कर्म के आधार पर हैं; अजीवों को जीवों ने संग्रह कर रखा है, जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है।
!
भगवन्! इस प्रकार कहने का क्या कारण है कि लोक की स्थिति आठ प्रकार की है और यावत् जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है? गौतम जैसे कोई पुरुष चमड़े की मशक को वायु से फुलावे फिर उस मशक का मुख बाँध दे, तत्पश्चात् मशक के बीच के भाग में गाँठ बाँधे; फिर मशक का मुँह खोल दे और उसके भीतर की हवा नीकाल दे; तदनन्तर उस मशक के ऊपर के भाग में पानी भरे फिर मशक का मुख बंद कर दे, तत्पश्चात् उस मशक की बीच
गाँठ खोल दे, तो हे गौतम! वह भरा हुआ पानी क्या उस हवा के ऊपर ही ऊपर के भाग में रहेगा ? (गौतम) हाँ, भगवन् । रहेगा। (भगवन्) हे गौतम इसीलिए मैं कहता हूँ कि यावत् कर्मों को जीवों ने संग्रह कर रखा है।
अथवा हे गौतम ! कोई पुरुष चमड़े की उस मशक को हवा से फूलाकर अपनी कमर पर बाँध ले, फिर वह पुरुष अथाह, दुस्तर और पुरुष परिमाण से भी अधिक पानी में प्रवेश करे; तो वह पुरुष पानी की ऊपरी सतह पर ही रहेगा? हाँ, भगवन् ! रहेगा। हे गौतम! इसी प्रकार यावत् कर्मों ने जीवों को संगृहीत कर रखा है। सूत्र - ७७
भगवन् । क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ?, परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं ?, परस्पर गाढ़ सम्बद्ध हैं, परस्पर स्निग्धता से प्रतिबद्ध हैं, (अथवा) परस्पर घट्टित होकर रहे हुए हैं? हाँ, गौतम ! ये परस्पर इसी प्रकार रहे हुए हैं। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम! जैसे-एक तालाब हो, वह जल से पूर्ण हो, पानी से लबालब भरा हुआ हो, पानी से छलक रहा हो और पानी से बढ़ रहा हो, वह पानी से भरे हुए घड़े के समान है । उस तालाब में कोई पुरुष एक ऐसी बड़ी नौका, जिसमें सौ छोटे छिद्र हों और सौ बड़े छिद्र हों; डाल दे तो वह नौका, उन-उन छिद्रों द्वारा पानी से भरती हुई, जल से परिपूर्ण, पानी से लबालब भरी हुई, पानी से छलकती हुई, बढ़ती हुई क्या भरे हुए घड़े के समान हो जाएगी? हाँ, भगवन् हो जाएगी। इसलिए हे गौतम में कहता हूँ- यावत् जीव और पुद्गल परस्पर घट्टित होकर रहे हुए हैं ।
!
सूत्र - ७८
भगवन्! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय, सदा परिमित पड़ता है? हाँ, गौतम पड़ता है। भगवन् वह सूक्ष्म स्नेह-काय ऊपर पड़ता है, नीचे पड़ता है या तीरछा पड़ता है ? गौतम ! वह ऊपर भी पड़ता है, नीचे भी पड़ता है और तीरछा भी पड़ता है। भगवन् क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल अप्काय की भाँति परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीर्घकाल तक रहता है ? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है; क्योंकि वह (सूक्ष्म स्नेहकाय) शीघ्र ही विध्वस्त हो जाता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक-१ उद्देशक ७
-
सूत्र - ७९
भगवन् ! नारकों में उत्पन्न होता हुआ नारक जीव एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है या एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है, या सर्वभाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
Page 26