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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक तीनों ज्ञान वाले तथा तीनों अज्ञान वाले नारकों में क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए।
भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारक जीव क्या मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं अथवा काययोगी हैं? गौतम ! वे प्रत्येक तीनों प्रकार के हैं; भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले और यावत् मनोयोग वाले नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त हैं ? गौतम ! उनके क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए । इसी प्रकार वचनयोगी और काययोगी के भी क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए । भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक जीव क्या साकारोपयोग से युक्त हैं अथवा अनाकारोपयोग से युक्त हैं ? गौतम ! वे साकारोपयोग युक्त भी हैं और अनाकारोपयोगयुक्त भी हैं । भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के साकारोपयोगयुक्त नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं; यावत् लोभोपयुक्त हैं ? गौतम ! इनमें क्रोधोपयुक्त इत्यादि २७ भंग कहने चाहिए । इसी प्रकार अनाकारोपयोगयुक्त में भी क्रोधोपयुक्त इत्यादि सत्ताईस भंग कहने चाहिए । रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में दस द्वारों का वर्णन किया है, उसी प्रकार सातों पृथ्वीयों के विषय में जान लेना चाहिए। किन्तु लेश्याओं में विशेषता है । वह इस प्रकार हैसूत्र-६५
पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र लेश्याएं हैं, चौथी में नील लेश्या है, पाँचवी में मिश्र लेश्याएं हैं, छठी में कृष्ण लेश्या और सातवी में परम कृष्ण लेश्या होती है। सूत्र-६६
भगवन् ! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से एक-एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने कितने स्थिति-स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके स्थिति-स्थान असंख्यात कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं-जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि सब वर्णन नैरयिकों के समान जानना चाहिए । विशेषता यह है कि इनमें जहाँ सत्ताईस भंग आते हैं, वहाँ प्रतिलोम समझना । वे इस प्रकार हैं-समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप से जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना । विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या आदि में भिन्नता जाननी चाहिए। सूत्र - ६७
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति-स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान हैं । वे इस प्रकार हैं उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्यस्थिति, दो समय अधिक जघन्यस्थिति, यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति।
___ भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले और जघन्य स्थितिवाले पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं या लोभोपयुक्त हैं ? गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, यावत् लोभोपयुक्त भी हैं । इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानोंमें अभंगक है विशेष यह कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए । इसी प्रकार अप्काय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक हैं । वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए। सूत्र-६८
जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गए हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान-इन तीन स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है । तथा जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक हैं।
जैसा नैरयिकों के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के विषय में कहना चाहिए । विशेषता यह है कि जिन-जिन स्थानों में नारक-जीवों के सत्ताईस भंग कहे गए हैं. उन-उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहा चाहिए, और जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन स्थानों में पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के भी अस्सी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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