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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक प्रदक्षिणा की, यावत् त्रिविध पर्युपासना की । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी ने उस क्षत्रियकुमार जमालि तथा उस बहुत बड़ी ऋषिगण आदि की परिषद् की यावत् धर्मोपदेश दिया । यावत् परिषद वापस लौट हुई। सूत्र - ४६४
श्रमण भगवान् महावीर के पास से धमृ सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन-नमन किया और कहा- भगवन् ! मैं निग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं | भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीत करता हू । भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रुचि है । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीत करता हू । भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रूचि है । भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार चलने के लिए अभ्युद्यत हुआ हूं । भन्ते ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन तथ्य है, सत्य है; भगवन् ! यह असंदिग्ध है, यावत् जैसा कि आप कहते है । किन्तु हे देवानुप्रिये ! मैं अपने माता-पिता को पूछता हैं और उनकी अनुज्ञा लेकर आप देवानुप्रिये के समीप मुण्डित हो कर अगारधर्म से अनगारधर्म मे प्रव्रजित होना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। जब श्रमण भगवान महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से इस प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया। फिर उस चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरुढ हुआ, रथारूढ हो कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, बहुशाल नामक उद्यान से निकला, यावत् मस्तक पर कोरटपुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए महान् सुभटों इत्यादि के समूह से परिवृत्त होकर जहाँ क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था, वहाँ आया। वहाँ से वह क्षत्रियकुण्डग्राम के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । वहाँ पहुंचते ही उसने घोड़ो को रोका और रथ को खड़ा कराया । फिर वह रथ से नीचे उतरा और आन्तरिक उपस्थानशाला में, जहाँ कि उसके माता-पिता थे, वहाँ आया । आते ही उसने जय-विजय शब्दों से वधाया, फिर कहा हे माता-पिता ! मैने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट रुचिकर प्रतीत हुआ है।
यह सुन कर माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तू धन्य है ! बेटा ! तू कृतार्थ हुआ है ! पुत्र ! तू कृतपुण्य है । पुत्र ! तू कृतलक्षण है कि तूने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुझे इष्ट, विशेष प्रकार से अभीष्ट और रुचिकर लगा है । तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि ने दूसरी बार भी अपने मातापिता से कहा- मैने श्रमण भगवान् महावीर से वास्तविक धर्म सुना, जो मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा इसलिए हे माता-पिता ! मैं संसार के रथ से उद्विग्र हो गया हूं, जन्म-मरण से भयभीत हुआ हूं । अतः मैं चाहता हूं कि आप दोनो की आज्ञा प्राप्त होने पर श्रमण भगवान् महावीर पास मुण्डित होकर गृहवास त्याग कर अनगार धर्ममें प्रव्रजित होऊ।
क्षत्रियकुमार जमालि की माता उसके उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय और अश्रुतपूर्व वचन सुनकर और अवधारण करके रोमकूप से बहते हुए पसीने से उसका शरीर भीग गया । शोक के भार से उसके अंग-अंग कांपने लगे । निस्तेज हो गई । मुख दीन और उन्मना हो गया । हथेलियो से मसली हुई कमलमाला की तरह शरीर तत्काल मुर्झ गया एवं दुर्बल हो गया । वह लावण्यशून्य, कान्तिरहित और शोभाहीन हो गई । आभूषण ढीले हो गए । हाथो की धवल चूड़ियाँ नीचे गिर कर चूर-चूर हो गई । उत्तरीय वस्त्र अंग से हट गया । मूर्छावश उसकी चेतना नष्ट हो गई। शरीर भारी-भारी हो गया । सुकोमल केशराशि बिखर गई। वह कुल्हाड़ी से काटी हई चम्पकलता की तरह एवं महोत्सव समाप्त होने के बाद इन्द्रध्वज की तरह शोभाविहीन हो गई। उसके सन्धिबन्धन हो गए और वह धड़ाम से सारे ही अंगो सहित फर्श पर गिर पड़ी।
इसके पश्चात क्षत्रियकुमार जमालि की व्याकुलतापूर्वक इधर-उधर गिरती हुई माता के शरीर पर शीघ्र ही दासियों ने स्वर्णकलशो के मुख से निकली हुई शीतल एवं निर्मल जलधारा का सिंचन करके शरीर को स्वस्थ किया। फिर पंखो तथा ताड़ के पत्तों से बने पंखों से जलकणों सहित हवा की । तदनन्तर अन्तःपुर के परिजनों ने उसे आशवस्त किया । रोती हुई, क्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई, एवं विलाप करती हुई माता क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहने लगी-पुत्र ! तू हमारा इकलौता पुत्र है, तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनसुहाता है,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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