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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक रहा था, खुशियां मनाई जा रही थी, ऐसे अपने उच्च श्रेष्ठ प्रासाद-भवन में प्रावट, वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म, इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनुसार आनन्द मनाता हआ, समय बिताता हआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वाले कामभोगों का अनुभव करता हुआ रहता था।
उस दिन क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में श्रृगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर यावत् महापथ पर बहुत से लोगो का कोलाहल हो रहा था, इत्यादि औपपातिकसूत्र कि तरह जानना चाहिए; यावत् बहुत-से लोग परस्पर एकदुसरे से कह रहे थे देवानुप्रियो ! आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर, इस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते है । अतः हे देवानुप्रियो ! तथारूप अरिहन्त भगवान् के नाम, गोत्र के श्रवण-मात्र से महान् फल होता है; इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र अनुसार, यावत् वह जनसमह तीन प्रकार की पर्यपासना करता है।
तब बहत-से मनुष्यों के शब्द और उनका परस्पर मिलन सन और देख कर उस क्षत्रियकुमार जमालिके मन में विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ- क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में इन्द्र का उत्सव है ?, अथवा स्कन्दोत्सव है ?, या मुकुन्द महोत्सव है ? नाग का, यक्ष का अथवा भूतमहोत्सव है ? या की कूप का, सरोवर का, नदी का या द्रह का उत्सव है ?, अथवा किसी पर्वत का, वृक्ष का, चैत्य का अथवा स्तूप का उत्सव है ?, जिसके कारण ये बहुत-से उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञातृ, कौरव्य, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, सेनापति, सेनापतिपत्र, प्रशास्ता एवं प्रशास्तृपुत्र, लिच्छवी, लिच्छवीपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र एवं इभ्य इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् सार्थवाह-प्रमुख, स्नान आदि करके यावत् बाहर निकल रहै है ?' इस प्रकार विचार करके उसने कंचुकीपुरुष को बुलाया और उससे पूछा- हे देवानुप्रियो ! क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में इन्द्र आदि का कोई उत्सव है, जिसके कारण यावत् ये सब लोग बाहर जा रहे है?'
तब जमालि क्षत्रियकुमार के इस प्रकार कहने पर वह कंचुकी पुरुष अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने श्रमण भगवान् महावीर का आगमन जान कर एवं निश्चित करके हाथ जोड़ कर जय-विजय-ध्वनि से जमालि क्षत्रियकुमार को बधाई दी । उसने कहा- हे देवानुप्रिये ! आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सव नही है, किन्तु देवानुप्रिये ! आदिकर यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर स्वामी ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते है; इसी कारण ये उग्रकुल, भोगकुल आदि के क्षत्रिय आदि तथा और भी अनेक जन वन्दन के लिए यावत् जा रहे है । तदनन्तर कंचुकीपुरुष से यह बात सुन कर और हृदय मे धारण करके जमालि क्षत्रियकुमार, हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही चार घण्टा वाले अश्वरथ को जोत कर यहाँ उपस्थित करो और मेरी इस आज्ञा का पालन करके सूचना दो । तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालि के इस आदेश को सुन कर तदनुसार कार्य करके निवेदन किया।
तदनन्तर वह जमालि क्षत्रियकुमार जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया उसने स्नान किया तथा अन्य सभी दैनिक क्रियाएँ की, यावत् शरीर पर चन्दन का लेपन किया; समस्त आभूषणों से विभूषित हुआ और स्नानगृह से निकला आदि सारा वर्णन औपपातिकसूत्र अनुसार जानना चाहिए । फिर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहाँ सुसज्जित चातुर्घष्ट अश्वरथ था, वहाँ वह आया । उस अश्वरथ पर चढा । कोरण्टपुष्प की माला से युक्त छत्र को मस्तक पर धारण किया हुआ तथा बड़े-बड़े सुभटो, दासो, पथदर्शको आदि के समुह से परिवृत हुआ वह जमालि क्षत्रियकुमार क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के मध्य में से होकर निकला और ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहर जहाँ बहुशाल नामक उद्यान था, वहाँ आया । वहाँ घोड़ो को रोक कर रथ को खड़ा किया, वह रथ से नीचे उतरा । फिर उसने पुष्प, ताम्बूल, आयुध (शस्त्र) आदि तथा उपानह (जूते) वहीं छोड़ दिये । एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। तदनन्तर आचमन किया हुआ और अशुद्धि दूर करके अत्यन्त शुद्ध हुआ जमालि मस्तक पर दोनों हाथ जोड़े हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुचा । समीप जाकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार अदक्षिण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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