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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक
सलेश्य जीवों का कथन, औधिक जीवों की तरह करना चाहिए। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या वाले जीवों का कथन आहारक जीव की तरह करना चाहिए । किन्तु इतना विशेष है कि जिसके जो लेश्या हो, उसके वह लेश्या कहनी चाहिए । तेजोलेश्या में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए; किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग कहने चाहिए । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में जीवादिक तीन भंग कहने चाहिए । अलेश्य जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए तथा अलेश्य मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए
सम्यग्दृष्टि जीवों में जीवादिक तीन भंग कहने चाहिए। विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिए । मिथ्यादृष्टि जीवों में एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग कहने चाहिए । सम्यगमिथ्यादष्टि जीवों में छह भंग कहने चाहिए।
संयतों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए । असंयतों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । संयतासंयत जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए।
सकषायी जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए । एकेन्द्रिय (सकषायी) में अभंगक कहना चाहिए । क्रोधकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । मानकषायी और मायाकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । नैरयिकों और देवों में छह भंग कहने चाहिए । लोभकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । नैरयिक जीवों में छह भंग कहने चाहिए । अकषायी जीवों, जीव, मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए।
औधिकज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान में जीवादि तीन भंग कहना । विकलेन्द्रियों में छह भंग कहना । अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में जीवादि तीन भंग कहना । औधिक अज्ञान, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना । विभंगज्ञान में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए।
जिस प्रकार औघिक जीवों का कथन किया, उसी प्रकार सयोगी जीवों का कथन करना चाहिए । मनोयोगी वचनयोगी और काययोगी में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए । विशेषता यह है कि जो काययोगी एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक होता है । अयोगी जीवों का कथन अलेश्यजीवों के समान कहना चाहिए।
साकार-उपयोगवाले और अनाकार-उपयोगवाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना।
सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिए । स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में तीन भंग कहने चाहिए । विशेष यह है कि नपंसकवेद में जो एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक है । जैसे अकषायी जीवों के विषय में कथन किया, वैसे ही अवेदक जीवों के विषय में कहना चाहिए।
जैसे औधिक जीवों का कथन किया, वैसे ही सशरीरी जीवों के विषय में कहना चाहिए। औदारिक और वैक्रियशरीर वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । आहारक शरीर वाले जीवों में जीव और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए । तैजस और कार्मण शरीर वाले जीवों का कथन औधिक जीवों के समान करना चाहिए । अशरीरी, जीव और सिद्धों के लिए तीन भंग कहने चाहिए।
आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छवास-पर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए । भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति वाले जीवों का कथन संज्ञीजीवों के समान कहना । आहारअपर्याप्ति वाले जीवों का कथन अनाहारक जीवों के समान कहना । शरीर-अपर्याप्ति, इन्द्रियअपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ तीन भंग कहने चाहिए । (अपर्याप्तक) नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए । भाषा-अपर्याप्ति और मनःअपर्याप्ति वाले जीवों में जीव आदि तीन भंग कहना । नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग जानना। सूत्र - २८७
सप्रदेश, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति, इन चौदह द्वारों का कथन ऊपर किया गया है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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