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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-२८८
भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यानी है, अप्रत्याख्यानी है या प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी है ? गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी है, अप्रत्याख्यानी भी है और प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी भी हैं । इसी तरह सभी जीवों के सम्बन्ध में प्रश्न है । गौतम ! नैरयिक जीव यावत् चतुरिन्द्रिय जीव अप्रत्याख्यानी है, इन जीवों में शेष दो भंगों का निषेध करना। पंचेन्द्रियतिर्यंच प्रत्याख्यानी नहीं हैं, किन्तु अप्रत्याख्यानी हैं और प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी भी हैं । मनुष्य तीनों भंग के स्वामी हैं । शेष जीवों नैरयिकों समान जानना।
भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यान को जानते हैं, अप्रत्याख्यान को जानते हैं और प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यान को जानते हैं ? गौतम ! जो पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे तीनों को जानते हैं । शेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते ।
भगवन ! क्या जीव प्रत्याख्यान करते हैं, अप्रत्याख्यान करते हैं, प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यान करते हैं ? गौतम! औधिक दण्डक के समान प्रत्याख्यान विषय में कहना।
भगवन् ! क्या जीव, प्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं अथवा प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं ? गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले भी हैं, और प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले भी हैं । शेष सभी जीव अप्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं। सूत्र- २८९, २९०
प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का जानना, करना, तीनों का (जानना, करना) तथा आयुष्य की निर्वृत्ति, इस प्रकार ये चार दण्डक सप्रदेश उद्देशक में कहे गए हैं। भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यह इसी प्रकार है।
शतक-६ - उद्देशक-५ सूत्र - २९१
भगवन् ! 'तमस्काय किसे कहा जाता है ? क्या तमस्काय पृथ्वी को कहते हैं या पानी को? गौतम ! पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, किन्तु पानी तमस्काय कहलाता है। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम ! कोई पृथ्वीकाय ऐसा शुभ है, जो देश को प्रकाशित करता है और कोई पृथ्वीकाय ऐसा है, जो देश को प्रकाशित नहीं करता इस कारण से पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, पानी ही तमस्काय कहलाता है।
भगवन् ! तमस्काय कहाँ से उत्पन्न होता है और कहाँ जाकर स्थित होता है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के बाहर तीरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने के बाद अरुणवरद्वीप की बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणोदयसमुद्र में ४२,००० योजन अवगाहन करने (जाने) पर वहाँ के ऊपरी जलान्त से एक प्रदेश वाली श्रेणी आती है, यहीं से तमस्काय प्रादुर्भूत हुआ है । वहाँ से १७२१ योजन ऊंचा जाने के बाद तीरछा विस्तृत-से-विस्तृत होता हुआ, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र, इन चार देवलोकों को आवृत करके उनसे भी ऊपर पंचम कल्प के रिष्ट विमान प्रस्तट तक पहुँचा है और यहीं संस्थित हुआ है।
भगवन् ! तमस्काय का संस्थान (आकार) किस प्रकार का है ? गौतम ! तमस्काय नीचे तो मल्लक के मूल के आकार का है और ऊपर कुक्कुटपंजरक आकार का है।
भगवन् ! तमस्काय का विष्कम्भ और परिक्षेप कितना कहा गया है ? गौतम ! तमस्काय दो प्रकार का कहा गया है-एक तो संख्येयविस्तृत और दूसरा असंख्येयविस्तृत । इनमें से जो संख्येयविस्तृत है, उसका विष्कम्भ संख्येय हजार योजन है और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन है । जो तमस्काय असंख्येयविस्तृत है, उसका विष्कम्भ असंख्येय हजार योजन है और परिक्षेप भी असंख्येय हजार योजन है।
भगवन् ! तमस्काय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! समस्त द्वीप-समुद्रों के सर्वाभ्यन्तर यह जम्बूद्वीप है, यावत् यह एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है । इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । कोई महाऋद्धि यावत् महानुभाव वाला देव
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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