________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1 '
शतक/ शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक कि (सामान्य जीवों के आलापक में उक्त) प्रमत्त और अप्रमत्त यहाँ नहीं कहना चाहिए। तेजोलेश्या वाले, पद्मश् वाले और शुक्ललेश्या वाले जीवों के विषय में भी औघिक जीवों की तरह कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि सामान्य जीवों में से सिद्धों के विषय का कथन यहाँ नहीं करना चाहिए ।
सूत्र - २३
!
हे भगवन् । क्या ज्ञान इहभविक है? परभविक है? या तदुभयभविक है ? गौतम ज्ञान इहभविक भी है, परभविक भी है, और तदुभयभविक भी है । इसी तरह दर्शन भी जान लेना चाहिए । हे भगवन् ! क्या चारित्र इहभविक है, परभविक है या तदुभयभविक है ? गौतम ! चारित्र इहभविक है, वह परभविक नहीं है और न तदुभय भविक है । इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए ।
सूत्र - २४
भगवन् ! असंवृत अनगार क्या सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है तथा समस्त दुःखों का अन्त करता है? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् वह किस कारण से सिद्ध नहीं होता, यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं करता ? गौतम असंवृत्त अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेष शिथिलबन्धन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़बन्धन से बद्ध करता है; अल्पकालीन स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है; मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है; अल्पप्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है और आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है, एवं कदाचित् नहीं बाँधता असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है; तथा अनादि अनवदग्र- अनन्त दीर्घभाग वाले चतुर्गति वाले संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटनकरता है; हे गौतम । इस कारण से असंवृत्त अनगार सिद्ध नहीं होता, यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता।
!
!
भगवन् । क्या संवृत्त अनगार सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है? हाँ, गौतम वह सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है? गौतम संवृत्त अनगार आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष गाढ़बन्धन से बद्ध सात कर्म प्रकृतियों को शिथिलबन्धनबद्ध कर देता है; दीर्घकालिक स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को ह्रस्व काल की स्थिति वाली कर देता है, तीव्ररस वाली प्रकृतियों को मन्द रस वाली कर देता है; बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्प प्रदेश वाली कर देता है, और आयुष्कर्म को नहीं बाँधता । वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता, अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिरूप संसार-अरण्य का उल्लंघन कर जाता है । इस कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि संवृत्त अनगार सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है ।
सूत्र - २५
!
भगवन् । असंयत, अविरत, तथा जिसने पापकर्म का हनन एवं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक में च्यव (मर) कर क्या परलोक में देव होता है ? गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता । भगवन् ! यहाँ से च्यवकर परलोक में कोई जीव देव होता है, और कोई जीव देव नहीं होता; इसका क्या कारण है? गौतम जो ये जीव ग्राम, आकर, नगर निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम, सन्निवेश आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से अकाम शीत, आतप तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहने से अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल, मैल तथा पंक से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत समय तक अपने आत्मा को क्लेशित करते हैं; वे अपने आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मरकर वाणव्यन्तर देवों के किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं ।
!
भगवन्। उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गए हैं? गौतम जैसे इस मनुष्यलोक में नित्य कुसुमित, मयूरित, लवकित, फूलों के गुच्छों वाला, लतासमूह वाला, पत्तों के गुच्छों वाला, यमल (समान श्रेणी के ) वृक्षों वाला, युगलवृक्षों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुआ, फल-फूल के झूकने की प्रारम्भिक अवस्था वाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला अशोकवन, सप्तवर्ण वन, चम्पक वन,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
Page 11