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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक
पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कहकर उनका उच्छ्वास विमात्रा से कहना चाहिए, उनका अनाभोगनिवर्तित आहार प्रतिसमय विरहरहित होता है । आभोगनिवर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त होने पर होता है । शेष वक्तव्य अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते, तक चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना।
मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि उनका आभोगनिवर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त में, उत्कृष्ट अष्टमभक्त अर्थात् तीन दिन बीतने पर होता है । पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा गृहीत आहार श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, और स्पर्शनेन्द्रिय, इन पाँचों इन्द्रियों के रूप में विमात्रा से बार-बार परिणत होता है। शेष सब वर्णन पर्ववत समझ लेना चाहिए: यावत वे अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते।
वाणव्यन्तर देवों की स्थिति में भिन्नता है। शेष समस्त वर्णन नागकुमारदेवों की तरह समझना चाहिए । इसी तरह ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उनका उच्छवास जघन्य मुहर्त्त-पृथक्त्व और उत्कृष्ट भी मुहूर्तपृथक्त्व के बाद होता है । उनका आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व के पश्चात् होता है। शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कहनी चाहिए । उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्त्तपृथक्त्व से, और उत्कृष्ट तैंतीस पक्ष के पश्चात् होता है । उनका आभोगनिवर्तित आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट ३३००० वर्ष के पश्चात होता है। वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते, इत्यादि, शेष वर्णन पूर्ववत सूत्र-२२
हे भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं, अथवा अनारम्भी हैं ? हे गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं है। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी भी नहीं हैं, और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं।
भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं ? इत्यादि । गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार के हैं संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक । उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध हैं और सिद्ध भगवान न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न ही उभयारम्भी हैं. किन्तु अनारम्भी हैं । जो संसार-समापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-संयत और असंयत। उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं; जैसे कि-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, वे न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं । जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं । अशुभयोग की अपेक्षा वे आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी हैं किन्तु अनारम्भी नहीं हैं । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, यावत् अनारम्भी भी हैं । भगवन् ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी हैं, या अनारम्भी हैं ? गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा से, अविरति होने के कारण नैरयिक जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं।
इसी प्रकार असुरकुमार देवों के विषय में भी जान लेना चाहिए, यावत् तिर्यंचपंचेन्द्रिय तक का भी (आलापक) इसी प्रकार कहना चाहिए।
मनुष्यों में भी सामान्य जीवों की तरह जान लेना । विशेष यह है कि सिद्धों का कथन छोड़कर । वाण-व्यन्तर देवों से वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए।
लेश्या वाले जीवों के विषय में सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए | कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले जीवों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों की भाँति ही सब कथन समझना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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