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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक एक समय का और उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्येय भाग का अन्तर होता है । इसी तरह यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ़ तक कहना चाहिए।
वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शगत, सूक्ष्म-परिणत एवं बादरपरिणत पुद्गलों का जो संस्थितिकाल कहा गया है, वही उनका अन्तरकाल समझना चाहिए।
भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गल का अन्तर काल की अपेक्षा कितने काल का है ? गौतम ! जघन्य एक समय का, उत्कृष्टतः असंख्येय काल का अन्तर होता है । भगवन् ! अशब्दपरिणत पुद्गल का अन्तर कालतः कितने काल का होता है ? गौतम ! जघन्य एक समय का और उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्येय भाग का अन्तर होता है। सूत्र - २५८
भगवन ! इन द्रव्यस्थानाय, क्षेत्रस्थानाय, अवगाहनास्थानाय और भावस्थानाय: इन सबमें कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम क्षेत्रस्थानाय है, उससे अवगाहनास्थानाय असंख्येय-गुणा है, उससे द्रव्य-स्थानायु असंख्येयगुणा है और उससे भावस्थानायु असंख्येयगुणा है। सूत्र - २५९
क्षेत्रस्थानायु, अवगाहना-स्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भावस्थानायु; इनका अल्प-बहुत्व कहना चाहिए । इनमें क्षेत्रस्थानायु सबसे अल्प है, शेष तीन स्थानायु क्रमशः असंख्येयगुणा है। सूत्र-२६०
भगवन् ! क्या नैरयिक आरम्भ और परिग्रह से सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? गौतम! नैरयिक सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम ! नैरयिक पृथ्वीकाय का यावत् त्रसकाय का समारम्भ करते हैं, तथा उन्होंने शरीर परिगृहीत किये हुए हैं, कर्म परिगृहीत किये हुए हैं और सचित्त एवं मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हुए हैं, इस कारण से नैरयिक आरंभ एवं परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं।
भगवन् ! असुरकुमार क्या आरम्भयुक्त एवं परिग्रह-सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं? गौतम ! असुरकुमार भी सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरीग्रही नहीं होते । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम ! असुरकुमार पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक का समारम्भ करते हैं, तथा उन्होंने शरीर परीगहीत किये हए हैं, कर्म परीगहीत किये हए हैं, भवन परीगृहीत किये हुए हैं, वे देव-देवियों, मनुष्य पुरुषस्त्रियों, तिर्यंच नर-मादाओं को परिगृहीत किये हुए हैं, तथा वे आसन, शयन, भाण्ड मात्रक, एवं विविध उपकरण परीगृहीत किये हुए हैं, एवं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्य परीगृहीत किये हुए हैं । इस कारण से वे आरम्भयुक्त एवं परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए।
नैरयिकों के समान एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या समारम्भ-सपरिग्रह होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव भी आरम्भ-परिग्रह से युक्त हैं, वे अनारम्भीअपरिगृही नहीं हैं; इसका कारण भी वही पूर्वोक्त है । (वे षट्काय का आरम्भ करते हैं) तथा यावत् उन्होंने शरीर परीगृहीत किये हुए हैं, उनके बाह्य भाण्ड, मात्रक तथा विविध उपकरण परीगृहीत किये हुए होते हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्य भी परीगृहीत किये हुए होते हैं । इसलिए वे यावत् अनारम्भी, अपरिग्रही नहीं होते । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में कहना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव क्या आरम्भपरिग्रहयुक्त हैं, अथवा आरम्भ-परिग्रहरहित हैं ? गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव, आरम्भ-परिग्रह-युक्त हैं, किन्तु आरम्भपरिग्रहरहित नहीं हैं; क्योंकि उन्होंने शरीर यावत् कर्म परीगृहीत किये हैं । तथा उनके टंक, कूट, शैल, शिखरी, एवं प्राग्भार परीगृहीत होते हैं । इसी प्रकार जल, स्थल, बिल, गुफा, लयन भी परीगृहीत होते हैं । उनके द्वारा उज्झर, निर्झर, चिल्लल, पल्लल तथा वप्रीण परीगृहीत होते हैं । उनके द्वारा कूप, तड़ाग, द्रह, नदी, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, सरोवर, सर-पंक्ति, सरसरपंक्ति, एवं बिलपंक्ति परीगृहीत होते हैं । तथा आराम, उद्यान, कानन, वन, वनखण्ड,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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