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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक व्यवहार करना चाहिए।
हे भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ आगम व्यवहार को ही प्रमुख मानने वाले हैं फिर ये पाँच व्यवहार क्यों कहे गए हैं? इन पाँच व्यवहारों में से जहाँ जिस व्यवहार से समस्या सुलझती हो वहाँ उस व्यवहार से प्रवृत्ति करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है। सूत्र-४६०
सोये हुए संयत मनुष्यों के पाँच जागृत हैं, यथा-शब्द यावत्-स्पर्श । जागृत संयत मनुष्यों के पाँच सुप्त हैं, यथा-शब्द यावत्-स्पर्श । सुप्त या जागृत असंयत मनुष्यों के पाँच जागृत हैं, यथा-शब्द यावत् स्पर्श । सूत्र-४६१
पाँच कारणों से जीव कर्म-रज ग्रहण करता है, यथा-प्राणातिपात से यावत् परिग्रह से । पाँच कारणों से जीव कर्म-रज से मुक्त होता है, यथा-प्राणातिपात विरमण से यावत् परिग्रह विरमण से। सूत्र-४६२
पाँच मास वाली पाँचवी भिक्षु-प्रतिमा धारण करने वाले अणगार को पाँच दत्ति आहार की और पाँच-पाँच दत्ति पानी की लेना कल्पता है। सूत्र-४६३
पाँच प्रकार के उपघात (आहारादि की अशुद्धि) है । यथा-उद्गमोपघात-गृहस्थ द्वारा लगने वाले आधाकर्म आदि सोलह दोष । उत्पादनोपघात-साधु द्वारा लगने वाले धात्री आदि सोलह दोष । एकणोपघात-साधु और गृहस्थ द्वारा लगने वाले धात्री आदि सोलह दोष । परिकर्मोपघात-वस्त्र-पात्र के छेदन या सिलाई आदि में मर्यादा का उल्लंघन परिहरणोपघात-एकाकी विचरने वाले साधु के वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को उपयोग में लेना।
पाँच प्रकार की विशुद्धि कही गई है, यथा-उद्गमविशुद्धि, उत्पादनविशुद्धि, एषणा विशुद्धि, परिकर्मविशुद्धि, परिहरणविशुद्धि । पूर्वोक्त उद्गमादि दोषों का सेवन न करना विशुद्धि है। सूत्र - ४६४
पाँच कारणों से जीव दुर्लभ बोधी रूप कर्म बाँधते हैं, यथा-अरिहंतों का अवर्णवाद बोलने पर, अरिहंत कथित धर्म का अवर्णवाद बोलने पर, आचार्यों या उपाध्यायों का अवर्णवाद बोलने पर, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद बोलने पर, उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य का पालन करने से हुए देवों का अवर्णवाद बोलने पर।
पाँच कारणों से जीव सुलभ बोधि रूप कर्म बाँधते हैं । यथा-अरिहंतों का गुणानुवाद करने पर-यावत् उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य के पालने से हुए...देवों के गुणानुवाद करने पर । सूत्र-४६५
प्रतिसंलीन पाँच प्रकार के हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीन-यावत् स्पर्शेन्द्रिय प्रतिसंलीन । अप्रतिसंलीन पाँच प्रकार के हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय अप्रतिसंलीन यावत् स्पर्शेन्द्रिय अप्रतिसंलीन ।
संवर पाँच प्रकार के हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय संवर-यावत् स्पर्शेन्द्रिय संवर ।
असंवर पाँच प्रकार के हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् स्पर्शेन्द्रिय असंवर। सूत्र-४६६
संयम पाँच प्रकार का है, यथा-सामायिक संयम, छेदोपस्थापनीय संयम, परिहार विशुद्धि संयम, सूक्ष्म सम्पराय संयम, यथाख्यात चारित्र संयम । सूत्र - ४६७
एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा न करने वाले को पाँच प्रकार का संयम होता है, यथा-पृथ्वीकायिक संयम-यावत् वनस्पतिकायिक संयम । एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने वाले को पाँच प्रकार का असंयम होता है, यथापृथ्वीकायिक असंयम-यावत्-वनस्पतिकायिक असंयम।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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