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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक नहीं होता है । यथा-निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ कदाचित् अनेक योजन लम्बी, निर्जन एवं अगम्य अटवी में पहुँच जावे तो-किसी ग्राम, नगर यावत् राजधानी में निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थियों में से किसी एक को ही उपाश्रय मिला हो तोनागकुमार या सुपर्णकुमारावास में स्थान मिला हो तो-निर्ग्रन्थियों के वस्त्र यदि चोर ले जावें तो-यदि तरुण गुण्डे निर्ग्रन्थियों के साथ बलात्कार करना चाहें तो पाँच कारणों से अचेल निर्ग्रन्थ सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ एक स्थान में रहे तो भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । यथा-विक्षिप्त चित्त श्रमण के साथ यदि अन्य श्रमण न हो तो इसी प्रकार हर्षातिरेक से दृप्तचित्त यक्षाविष्ट और वायु रोग से उन्मत्त हो तो-किसी साध्वी का पुत्र दीक्षित हो और उसके साथ यदि अन्य श्रमण न हो तो। सूत्र-४५६ पाँच आश्रवद्वार कहे गए हैं, यथा-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभयोग। पाँच संवर द्वार कहे गए हैं-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभयोग। पाँच प्रकार का दण्ड कहा गया है, यथा, अर्थ दण्ड-स्व-पर के हित के लिए त्रस या स्थावर प्राणी की हिंसा। अनर्थ दण्ड-निरर्थक हिंसा । हिंसा दण्ड-जिसने अतीत में हिंसा की है जो वर्तमान में हिंसा करता है और जो भविष्य में हिंसा करेगा-इस अभिप्राय से जो सर्प या शत्रु की घात करता है। अकस्मात दण्ड किसी अन्य पर प्रहार किया था किन्तु वध अन्य का हो गया हो । दृष्टिविपर्यास- यह शत्रु है इस अभिप्राय से कदाचित् मित्र का वध हो जाए। सूत्र-४५७ मिथ्यादृष्टिओं को पाँच क्रियाएं कही गई हैं, यथा-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिका, अप्रत्याख्यान क्रिया, मिथ्यादर्शन प्रत्यया। मिथ्यादृष्टि नैरयिकों के पाँच क्रियाएं कही हैं, आरम्भिकी यावत्, मिथ्यादर्शन प्रत्यया । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी मिथ्यादृष्टियों को पाँच क्रियाएं कही गई हैं । विशेष-विकलेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं । शेष पूर्ववत् है। पाँच क्रियाएं कही गई हैं, यथा-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पाँच क्रियाएं हैं। पाँच क्रियाएं कही गई हैं, यथा-आरम्भिकी यावत्, मिथ्यादर्शन प्रत्यया । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पाँचों क्रियाएं हैं। पाँच क्रियाएं कही गई हैं, यथा-दृष्टिजा, पृष्टिजा, प्रातीत्यिकी, सामंतोपनिपातिकी, स्वाहस्तिकी । नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पाँच क्रियाएं हैं। पाँच क्रियाएं कही गई हैं, यथा-नैसृष्टिकी, आज्ञापनिकी, वैदारणिकी, अनाभोग प्रत्यया, अनवकांक्षप्रत्यया नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये पाँच क्रियाएं हैं। पाँच क्रियाएं कही गई हैं-प्रेमप्रत्यया, द्वेषप्रत्यया, प्रयोगक्रिया, समुदान क्रिया, ईर्यापथिकी। ये पाँचों क्रियाएं केवल एक मनुष्य दण्डक में हैं। शेष दण्डकों में नहीं हैं। सूत्र-४५८ परिज्ञा पाँच प्रकार की हैं, यथा-उपधि परिज्ञा, उपाश्रय परिज्ञा, कषाय परिज्ञा, योग परिज्ञा, भक्त परिज्ञा। सूत्र-४५९ ___ व्यवहार पाँच प्रकार का है, यथा-आगम व्यवहार, श्रुत व्यवहार, आज्ञा व्यवहार, धारणा व्यवहार, जीत व्यवहार । किसी विवादास्पद विषय में जहाँ तक आगम से कोई निर्णय नीकलता हो वहाँ तक आगम के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए । जहाँ किसी आगम से निर्णय न नीकलता हो वहाँ श्रुत से व्यवहार करना चाहिए । जहाँ श्रुत से निर्णय न नीकलता हो वहाँ गीतार्थ की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । जहाँ गीतार्थ की आज्ञा से समस्या हल न होती हो वहाँ धारणा के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । जहाँ धारणा से समस्या न सुलझती हो वहाँ जीत (गीतार्थ पुरुषों की परम्परा द्वारा अनुसरित) आचार के अनुसार व्यवहार करना चाहिए । इस प्रकार आगमादि से मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 95
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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