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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' । स्थान/उद्देश/सूत्रांक पाँच सेनापति-लघुपराक्रम-पैदल सेनाका सेनापति । महावायु अश्वराज-अश्वसेनाका सेनापति । पुष्पदन्त हस्तिराजहस्ति सेना का सेनापति । महादामर्धि वृषभराज-वृषभ सेना का सेनापति । महामाढर-रथ सेना का सेनापति। शक्रेन्द्र के सेनापतियों के नाम के समान सभी दक्षिण दिशा के इन्द्रों के यावत् आरणकल्प के इन्द्रों के सेनापतियों के नाम हैं । ईशानेन्द्र के सेनापतियों के समान सभी उत्तर दिशा के इन्द्रों के यावत् अच्युतकल्प के इन्द्रों के सेनापतियों के नाम हैं। सूत्र-४३९ शक्रेन्द्र की आभ्यन्तर परीषद के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम की कही गई है। ईशानेन्द्र की आभ्यन्तर परीषद के देवियों की स्थिति पाँच पल्योपम की कही गई है। सूत्र - ४४० पाँच प्रकार के प्रतिघात कहे गए हैं । यथा-गतिप्रतिघात-देवादि गतियों का प्राप्त न होना । स्थिति प्रतिघातदेवादि की स्थितियों का प्राप्त न होना । बंधन प्रतिघात-प्रशस्त औदारिकादि बंधनों का प्राप्त न होना । भोग प्रतिघात-प्रशस्त भोग-सुख का प्राप्त न होना । बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात-बल आदि का प्राप्त न होना। सूत्र-४४१ पाँच प्रकार की आजीविका है। जाति आजीविका-जाति बताकर आजीविका करना । कुल आजीविकाकुल बताकर आजीविका करना । कर्म आजीविका-कृषि आदि कर्म करके आजीविका करना । शिल्प आजीविका - वस्त्र आदि बूनकर आजीविका करना । लिंग आजीविका-साधु आदि का वेष धारण करके आजीविका करना। सूत्र- ४४२ पाँच प्रकार के राजचिन्ह हैं । खड्ग, छत्र, मुकुट, मोजड़ी, चामर । सूत्र -४४३ पाँच कारणों से छद्मस्थजीव (साधु) उदय में आये हुए परीषहों और उपसर्गों को-समभाव से सहन करता है। समभाव से क्षमा करता है । समभाव से तितिक्षा करता है । समभाव से निश्चल होता है। समभाव से विचलित होता है वह इस प्रकार है। कर्मोदय से यह पुरुष उन्मत्त है इसलिए-मुझे आक्रोशवचन बोलता है । दुर्वचनों से मेरी भर्त्सना करता है। मुझे रस्सी आदि से बाँधता है । मुझे बंदीखाने में डालता है । मेरे शरीर के अवयवों का छेदन करता है । मेरे सामने उपद्रव करता है । मेरे वस्त्र, पात्र, कम्बल, या रजोहरण छीन लेता या दूर फैंक देता है । मेरे पात्रों को तोड़ता है । मेरे पात्र चुराता है। यह यक्षाविष्ट पुरुष है इसलिए यह-मुझे आक्रोश वचन बोलता है यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है । इस भव में वेदने योग्य कर्म मेरे उदय में आए हैं । इसलिए यह पुरुष मुझे आक्रोश वचन बोलता है । यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है। यदि में सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूँगा।.... क्षमा नहीं करूँगा।... तितिक्षा नहीं करूँगा। ...निश्चल नहीं रहूँगा। तो मेरे केवल पापकर्म का बंध होगा। यदि मैं सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा। ...क्षमा करूँगा।...तितिक्षा करूँगा। ....निश्चल रहूँगा। तो मेरे केवल कर्मों की निर्जरा ही होगी। पाँच कारणों से केवली उदय में आये हुए परीषहों और उपसर्गों को-समभाव से सहन करता है-यावत् । ..निश्चल रहता है । यथा-(१) वह विक्षिप्त पुरुष है, इसलिए मुझे आक्रोश वचन बोलता है-यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है । (२) यह दृप्तचित्त (अभिमानी) पुरुष है, इसलिए मुझे आक्रोश वचन बोलता है-यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है । यह यक्षाविष्ट पुरुष है इसलिए मुझे आक्रोश वचन बोलता है यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है । इस भव में वेदने योग्य कर्म मेरे उदय में आए हैं, इसलिए यह पुरुष-मुझे आक्रोश वचन बोलता है-यावत् मेरे पात्र चूरा लेता है । (५) मुझे सम्यक् प्रकार से सहन करते हुए, क्षमा करते हुए, तितिक्षा करते हुए या निश्चल रहते हुए देखकर अन्य अनेक छद्मस्थ श्रमण निर्ग्रन्थ उदय में आये हुए परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन करेंगे-यावत्-निश्चल रहेंगे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 92
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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