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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक एक पुरुष द्रव्य से भी मुक्त नहीं है और भाव से भी मुक्त नहीं है। पुरुष चार प्रकार के हैं । यथा-एक पुरुष (आसक्ति से) मुक्त है और (संयत वेष का धारक होने से) मुक्त रूप है एक पुरुष मुक्त है किन्तु मुक्त रूप नहीं है । एक पुरुष मुक्त रूप तो है किन्तु आसक्ति होने से मुक्त नहीं है। एक पुरुष मुक्त भी नहीं है और संयत वेशभूषा का धारक न होने से मुक्त रूप भी नहीं है। सूत्र-३९८ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं और चारों गतियों में से आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं । यथा-नैरयिकों से, तिर्यंचों से, मनुष्यों से और देवताओं से । मनुष्य मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं और चारों गतियों में से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। सूत्र - ३९९ द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा न करने वाला चार प्रकार का संयम करता है, यथा-जिह्वेन्द्रिय के सुख को नष्ट नहीं करता । जिह्वेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख नहीं देता । स्पर्शेन्द्रिय के सुख को नष्ट नहीं करता । स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख नहीं देता। द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा करने वाला चार प्रकार का असंयम करता है । यथा जिह्वेन्द्रिय के सुख को नष्ट करता है । जिह्वेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख देता है । स्पर्शेन्द्रिय के सुख को नष्ट करता है स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख देता है। सूत्र-४०० सम्यग्दृष्टि नैरयिक चार क्रियाएं करते हैं । आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया। विकलेन्द्रिय छोड़कर शेष सभी दण्डकों के जीव चार क्रियाएं करते हैं पूर्ववत् । सूत्र - ४०१ चार कारणों से पुरुष दूसरे के गुणों को छिपाता है । क्रोध से, ईष्या से, कृतघ्न होने से और दुराग्रही होने से। चार कारणों से पुरुष दूसरे के गुणों को प्रकट करता है । यथा-प्रशंसक स्वभाव वाला व्यक्ति । दूसरे के अनुकूल व्यवहार वाला । स्वकार्य साधक व्यक्ति । प्रत्युपकार करने वाला। सूत्र-४०२ चार कारणों से नैरयिक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होती है । यथा-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से । शेष सभी दण्डवर्ती जीवों के शरीर की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी इन्हीं चार कारणों से होता है। चार कारणों से नैरयिकों के शरीर की पूर्णता होती है। क्रोध से यावत् लोभ से। शेष सभी दण्डकवर्ती जीवों के शरीर की पूर्णता भी इन्हीं चार कारणों से होती है। सूत्र-४०३ धर्म के चार द्वार हैं । यथा-क्षमा, निर्लोभता, सरलता और मृदुता । सूत्र-४०४ चार कारणों से नरक में जाने योग्य कर्म बंधते हैं । महाआरम्भ करने से, महापरिग्रह करने से, पंचेन्द्रिय जीवों को मारने से, मांस आहार करने से। चार कारणों से तिर्यंचों में उत्पन्न होने योग्य कर्म बंधते हैं । यथा-मन की कुटिलता से । वेष बदलकर ठगने से झूठ बोलने से । खोटे तोल-माप बरतने से । चार कारणों से मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य कर्म बंधते हैं । यथा-सरल स्वभाव से, विनम्रता से, अनुकम्पा से, मात्सर्यभाव न रखने से। चार कारणों से देवताओं में उत्पन्न होने योग्य कर्म बंधते हैं । यथा-सराग संयम से, श्रावक जीवनचर्या से, अज्ञान तप से और अकामनिर्जरा से। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 85
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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