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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ६७८
श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों के और भेद भी बताए हैं । इस वनस्पतिकायवर्ग में कईं जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते हैं, वृक्ष में ही संवर्द्धित होते रहते हैं । वे वृक्षयोनिक जीव कर्मोदयवश वृक्षों में आते हैं और वृक्षयोनिक वृक्षों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । फिर प्रासुक हुए उनके शरीरों को पचाकर अपने समान रूप में
है। उन वृक्षयोनिक मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, पत्र, पुष्प, फल और बीज रूप जीवों के और भी शरीर होते हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श वाले तथा नाना प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं । वे जीव कर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है। सूत्र - ६७९
श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के अन्य भेद भी बताए हैं । इस वनस्पतिकाय जगत में कईं वक्षयोनिक जीव वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते एवं बढ़ते हैं । इस प्रकार उसी में उत्पन्न, स्थित और संवर्धित होने वाले वे वृक्षयोनिक जीव कर्मोदयवश तथा कर्म के कारण ही वृक्षों में आकर उन वृक्षयोनिक वृक्षों में 'अध्यारूह' वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीर का भी आहार करते हैं । वे उन्हें अचित्त, प्रासुक एवं परिणामित करके अपने स्वरूप में मिला लेते हैं । उनके नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले तथा अनेकविध रचना वाले एवं विविध पुद्गलों से बने हुए दूसरे शरीर भी होते हैं । वे अध्यारूह वनस्पति जीव स्वकर्मोदयवश ही वहाँ उस रूप में उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है। सूत्र - ६८०
वनस्पतिकायजगत में अध्यारूहयोनिक जीव अध्यारूह में ही उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित रहते एवं संवर्द्धित होते हैं । वे जीव कर्मोदय के कारण ही वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में अध्यारूह के रूप में उत्पन्न होते हैं वे जीव उन वृक्षयोनिक अध्यारूहों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पतिक के शरीर का आहार करते हैं । वे त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर डालते हैं, फिर उनके परिविध्वस्त शरीर को पचाकर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन वनस्पतियों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, नाना संस्थान वाले, अनेकविध पुद्गलों से बने हुए और भी शरीर होते हैं, वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों से ही अध्यारूहयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है । सूत्र - ६८१
इस वनस्पतिकायिक जगत में कईं अध्यारूहयोनिक प्राणी अध्यारूह वृक्षों में ही उत्पन्न होते हैं, उन्हीं में उनकी स्थिति और संवृद्धि होती है । वे प्राणी तथाप्रकार के कर्मोदयवश वहाँ आते हैं और अध्यारूहयोनिक वृक्षों में अध्यारूह रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं । तथा वे त्रस जीव और स्थावर प्राणियों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त प्रासुक एवं विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । उन अध्यारूह-योनिक अध्यारूह वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों से युक्त, विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । स्वकृतकर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है। सूत्र - ६८२
वनस्पतिकायजगत में कईं जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं । वे अध्यारूह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं में स्थित रहते हैं और बढ़ते हैं । वे अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर अध्यारूह वृक्षों में आते हैं और अध्यारूह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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