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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक योनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं । वे जीव त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींचकर उन्हें अचित्त कर देते हैं । प्रासुक हए उस शरीर को वे विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । उन वृक्षों के मूल से लेकर बीज तक के जीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त, अनेक प्रकार के पुद्गलों से रचित अन्य शरीर भी होते हैं । वे स्व-स्वकर्मोदयवश ही इनमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है। सूत्र - ६८३ वनस्पतिकायिक जगतमें कईं प्राणी पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी में ही स्थित होकर उसीमें संवर्धन पाते हैं । वे जीव स्वकर्मोदयवश नाना प्रकार की जातिवाली पृथ्वीयों पर तृणरूपमें उत्पन्न होते हैं । वे तृण के जीव उन नाना जातिवाली पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का आहार करते हैं । त्रस-स्थावर जीवों के शरीरों को अचित्त, प्रासुक एवं स्वरूपमें परिणत करते हैं । वे जीव कर्म से प्रेरित होकर ही पृथ्वीयोनिक तण के रूप में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् । ऐसा कहा है। सूत्र-६८४ इसी प्रकार कईं (वनस्पतिकायिक) जीव पृथ्वीयोनिक तृणोंमें तृण रूप से उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते, एवं संवृद्ध होते हैं । वे पृथ्वीयोनिक तृणों के शरीर का आहार करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् समझ लेना। सूत्र - ६८५ इसी तरह कईं (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में तृणरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित एवं संवृद्ध होते हैं । वे जीव तृणयोनिक तृणों के शरीर का ही आहार ग्रहण करते हैं । शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझना। इसी प्रकार कईं (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीजरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहे एवं संवृद्ध होते हैं । वे तृणयोनिक तृणों का आहार करते हैं । इन जीवों का शेष वर्णन पूर्ववत् । इसी प्रकार औषधिरूप में उत्पन्न जीवों के भी चार आलापक नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वीयों में औषधि विविध अन्नादि की पकी हुई फसल के रूप में, पृथ्वीयोनिक औषधियों में औषधि के रूप में, औषधियोनिक औषधियों के रूप में एवं औषधियोनिक औषधियों में (मूल से बीज तक के रूप में) सारा वर्णन पूर्ववत् । इसी प्रकार हरितरूपमें उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों के भी चार आलापक (१) नानाविध पथ्वीयोनिक पृथ्वीयों पर हरितरूप में, (२) पृथ्वीयोनिक हरितो में हरितरूप में, (३) हरित योनिक हरितों में हरित (अध्यारूह) रूपमें,(४) हरितयोनिक हरितों के मूल से लेकर बीज तक के रूप में एवं उनका सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना। सूत्र - ६८६ इस वनस्पतिकाय जगत में कईं जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही रहते हैं और उसी पर ही विकसित होते हैं । वे पूर्वोक्त पृथ्वीयोनिक वनस्पतिजीव स्व-स्वकर्मोदयवश कर्म के कारण ही वहाँ आकर उत्पन्न होते हैं । वे नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वीयों पर आय, वाय, काय, कूहण, कन्दुक, उपेहणी, निर्वहणी, सछत्रक, छत्रक, वासानी एवं क्रूर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन नानाविध योनियों वाली पृथ्वीयों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वीकायिक आदि छहों काय के जीवों के शरीर का आहार करते हैं। पहले उनसे रस खींच कर वे उन्हें अचित्त-प्रासुक कर देते हैं, फिर उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन पृथ्वीयोनिक आयवनस्पति से लेकर क्रूरवनस्पति तक के जीवों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आकार-प्रकार और ढाँचे वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । इन जीवों का एक ही आलापक होता है, शेष तीन आलापक नहीं होते। इस वनस्पतिकायजगतमें कईं उदकयोनिक वनस्पतियाँ होती हैं, जो जल में ही उत्पन्न होती हैं, जल में ही मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 87
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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