SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-३ - आहारपरिज्ञा सूत्र - ६७५ आयुष्मन् ! मैंने सूना है, उन भगवान श्री महावीर स्वामी ने कहा था-इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में आहारपरिज्ञा अध्ययन है, जिसका अर्थ यह है-इस समग्र लोक में पूर्व आदि दिशाओं तथा ऊर्ध्व आदि विदिशाओं में सर्वत्र चार प्रकार के बीजकाय वाले जीव होते हैं, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज । उन बीजकायिक जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से, जिस-जिस अवकाश से उत्पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज से तथा उसउस अवकाश में उत्पन्न होते हैं । इस दृष्टि से कईं बीजकायिक जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, उसी पर स्थित रहते हैं और उसी पर उनका विकास होता है। इसलिए पृथ्वीयोनिक, पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले और उसी पर स्थित रहने व बढ़ने वाले वे जीव कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म के निदान से आकर्षित होकर वहीं वृद्धिगत होकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वीयों पर वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति की योनियों वाली पृथ्वीयों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी शरीर अप-शरीर, तेजः शरीर, वायु शरीर और वनस्पति-शरीर का आहार करते हैं । तथा वे पृथ्वी जीव नाना-प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । वे आदि के अत्यन्त विध्वस्त उस को कुछ प्रासुक कुछ परितापित कर देते हैं, वे इन के पूर्व-आहारित किया था, उसे अब भी त्वचास्पर्श द्वारा अ करते हैं, तत्पश्चात उन्हें स्वशरीर के रूप में विपरिणत करते हैं। और उक्त विपरिणामित शरीर को स्व स्वरूप कर लेते हैं । इस प्रकार वे सर्व दिशाओं से आहार करते हैं । उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के दूसरे शरीर भी अनेक वर्ण, अनेक गन्ध, नाना रस, नाना स्पर्श के तथा नाना संस्थानों से संस्थित एवं नाना प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होकर बनते हैं । वे जीव कर्मों के उदय अनुसार स्थावरयोनि में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। सूत्र-६७६ इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने पहले बताया है, कि कईं सत्त्व वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, अतएव वे वृक्षयोनिक होते हैं, वृक्ष में स्थित रहकर वहीं वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वृक्षयोनिक, वृक्ष में उत्पन्न, उसी में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करने वाले कर्मों के उदय के कारण वे जीव कर्म से आकृष्ट होकर पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों से उनके स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । वे नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर डालते हैं । वे परिविध्वस्त किये हुए एवं पहले आहार किये हुए, तथा त्वचा द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि शरीरों को विपरिणामित कर अपने अपने समान स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । वे सर्व दिशाओं से आहार लेते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, अनेक प्रकार के संस्थानों से युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं, जो अनेक प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होते हैं । वे जीव कर्म के उदय के अनुरूप ही पृथ्वीयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थंकर देव ने कहा है। सूत्र - ६७७ इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों का अन्य भेद बताया है । इसी वनस्पतिकायवर्ग में कईं जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थिति एवं वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वृक्षयोनिक जीव कर्म के वशीभूत होकर कर्म के ही कारण उन वृक्षों में आकर वृक्षयोनिक जीवों में वृक्षरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह को आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं । वे त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । परिविध्वस्त किये हुए तथा पहले आहार किये हुए और पीछे त्वचा के द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचाकर अपने रूप में मिला लेते हैं । उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले दूसरे शरीर होते हैं । वे जीव कर्मोदय वश वृक्षयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह तीर्थंकर देव ने कहा है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 85
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy