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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक से यावत् प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना । पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । उसे धर्मश्रद्धालु जान कर उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं । यावत् वे उसके पास जाकर कहते हैं-''मैं आपको पूर्वपुरुषकथित और सुप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश करता हूँ।'' इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते हैं-एकपुरुष क्रिया का कथन करता है, दूसरा क्रिया का कथन नहीं करता । वे दोनों ही नियति के अधीन होने से समान हैं, तथा वे दोनों एक ही अर्थ वाले और एक ही कारण (नियतिवाद) को प्राप्त हैं। ये दोनों ही अज्ञानी हैं, अपने सुख दुःख के कारणभूत काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह समझते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा हूँ, शोक कर रहा हूँ, दुःख से आत्मनिन्दा कर रहा हूँ, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूँ, पीड़ा पा रहा हूँ, या संतप्त हो रहा हूँ, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म हैं, तथा दूसरा जो दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, पीडित होता है या स वह सब उसके द्वारा किये हुए कर्म हैं । इस कारण वह अज्ञजीव स्वनिमित्तक तथा परनिमित्तक सुखदुःखादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कत कर्मफल समझता है, परन्तु एकमात्र नियति को ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि 'मैं जो कुछ दुःख भोगता हूँ, शोकमग्न होता हूँ या संतप्त होता हूँ, वे सब मेरे किये हुए कर्म नहीं है, तथा दूसरा पुरुष जो दुःख पाता है, शोक आदि से संतप्त-पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, इस प्रकार वह बुद्धिमान पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुःख आदि को यों मानता है कि ये सब नियतिकृत हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं। अतः मैं कहता हूँ कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर की रचना को प्राप्त करते हैं, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और वृद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक् होते हैं, काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार नियति को ही समस्त अच्छे बूरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना करके नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते-क्रिया, अक्रिया से लेकर प्रथम सूत्रोक्त नरक और नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ । इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र में पड़े हुए लोग नाना प्रकार के सावद्यकर्मों का अनुष्ठान करके कामभोगों का उपभोग करते हैं, इसी कारण वे अनार्य हैं, वे भ्रम में पड़े हैं। वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के अपित कामभोगों में फँसकर कष्ट भोगते हैं। इस प्रकार ये पूर्वोक्त चार पुरुष भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले, विभिन्न शील वाले, पृथक् पृथक् दृष्टि वाले, नाना रुचि वाले, अलग-अलग आरम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विभिन्न अध्यवसाय वाले हैं । इन्होंने पूर्वसंयोगों को तो छोड़ दिया, किन्तु आर्यमार्ग को अभी तक पाया नहीं है । इस कारण वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के होते हैं, किन्तु बीच में ही कामभोगों में ग्रस्त होकर कष्ट पाते हैं। सूत्र - ६४५ मैं ऐसा कहता हूँ कि पूर्व आदि चारों दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, यावत् कोई कुरूप । उनके पास खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन तथा जनपद परिगृहीत होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक । इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में जन्म लेकर विषय-भोगों की आसक्ति छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए उद्यत होते हैं । कई विद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन तथा उपकरण को छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए समुद्यत होते हैं, अथवा कईं अविद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए समुद्यत होते हैं । जो विद्यमान अथवा अविद्यमान ज्ञातिजन, अज्ञातिजन एवं उपकरण का त्याग करके भिक्षाचर्या के लिए समुत्थित होते हैं, इन दोनों प्रकार के ही साधकों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि इस लोक में पुरुषगण अपने से भिन्न वस्तुओं को उद्देश्य करके झूठमूठ ही ऐसा मानते हैं कि ये मेरी है, मेरे उपभोग में आएंगी, जैसे कि यह मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 65
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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