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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अधर्म न मानने वाले वे पंचमहाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूर्छित होकर न तो इहलोक के रहते हैं और न ही परलोक के । उभयभ्रष्ट होकर बीच में ही कामभोगों में फँस कर कष्ट पाते हैं । यह दूसरा पुरुष पाञ्चमहाभूतिक कहा गया है। सूत्र - ६४३ तीसरा पुरुष ईश्वरकारणिक' कहलाता है । इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य होते हैं, जो क्रमशः इस लोक में उत्पन्न हैं । जैसे कि उनमें से कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य इत्यादि । उनमें कोई एक श्रेष्ठ पुरुष महान राजा होता है, इत्यादि पूर्ववत् । इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है । उस धर्मश्रद्धालु के पास जाने का तथाकथित श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं | वे उसके पास जाकर कहते हैं-हे भयत्राता महाराज! मैं आपको सच्चा धर्म सनाता हूँ, जो पूर्वपरुषों द्वारा कथित एवं सप्रज्ञप्त है, यावत आप उसे ही सत्य समझें । इस जगत में जितने भी चेतन-अचेतन धर्म हैं, वे सब पुरुषादिक हैं-ईश्वर या आत्मा आदि कारण हैं; वे सब पुरुषोत्तरिक्त हैं-ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है, अथवा संहारकर्ता है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न हैं, ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं। जैसे किसी प्राणी के शरीर में हुआ फोड़ा शरीर से ही उत्पन्न होता है, बढ़ता है, अनुगामी बनता है और शरीर का ही आधार लेकर टिकता है, इसी तरह सभी धर्म ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, वृद्धिगत होते हैं, अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते हैं । जैसे अरति शरीर से ही उत्पन्न होती है, बढ़ती है, अनुगामिनी बनती है, और शरीर को ही पीड़ित करती हुई रहती है, इसी तरह समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न, वृद्धिगत और उसीके आश्रय से स्थित हैं । जैसे वल्मीक पृथ्वी से उत्पन्न होता है, बढ़ता है, अनुगामी है तथा पृथ्वी का ही आश्रय लेकर रहता है, वैसे ही समस्त पदार्थ भी ईश्वर से ही उत्पन्न होकर उसीमें लीन होकर रहते हैं। जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, संवर्द्धन होता है, अनुगामी बनता है और मिट्टी में ही व्याप्त होकर रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संवर्द्धित और अनुगाममिक होते हैं और अन्त में उसीमें व्याप्त होकर रहते हैं । जैसे पुष्करिणी पृथ्वी से उत्पन्न होती है, और यावत् पृथ्वी में ही लीन होकर रहती है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और उसीमें ही लीन होकर रहते हैं। जैसे कोई जल का पुष्कर हो, वह जल से ही उत्पन्न होता है यावत् जल को ही व्याप्त करके रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न संवर्द्धित एवं अनुगामी होकर उसीमें विलीन होकर रहते हैं । जैसे कोई पानी का बदबद पानी से उत्पन्न होता है, यावत अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसीमें व्याप्त होकर रहते हैं। यह जो श्रमणों-निर्ग्रन्थों द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ या प्रकट किया हुआ द्वादशाङ्ग गणिपिटक है, जैसे कि-आचारांग, सूत्रकृतांग से लेकर दृष्टिवाद तक, यह सब मिथ्या है, यह तथ्य नहीं है और न ही यह यथातथ्य है, यह जो हमारा (ईश्वरकर्तृत्ववाद है) यह सत्य है, तथ्य है, यथातथ्य है । इस प्रकार वे ऐसी संज्ञा रखते हैं; वे अपने शिष्यों के समक्ष तथा सभा में भी वे इसी मान्यता से सम्बन्धित युक्तियाँ मताग्रहपूर्वक उपस्थित करते हैं । जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता वैसे ही अपने ईश्वर-कर्तृत्ववाद को अत्यन्ताग्रह के कारण नहीं छोड़ सकते, अतः इस मत के स्वीकार करने से उत्पन्न दुःख को नहीं तोड़ सकते । वे नाना प्रकार के पापकर्मयुक्त अनुष्ठानों के द्वारा कामभोगों के उपभोग के लिए अनेक प्रकार के कामभोगों का आरम्भ करते हैं । वे अनार्य हैं, वे विपरीत मार्ग को स्वीकार किये हुए हैं । इस प्रकार के ईश्वरकर्तृत्ववाद में श्रद्धाप्रतीति रखने वाले वे धर्मश्रद्धालु राजा आदि उन मतप्ररूपक साधकों की पूजा-भक्ति करते हैं, इत्यादि वे उभयभ्रष्ट लोग बीच में ही कामभोगों में फँस कर दुःख पाते हैं। यह तीसरे ईश्वरकारणवादी का स्वरूप कहा गया है। सूत्र-६४४ अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया गया है । इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशाओं के वर्णन मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 64
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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