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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक खेत मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चाँदी मेरी है, यह सोना मेरा है, यह धन-धान्य मेरा है, यह काँसे के बर्तन मेरे हैं, यह बहुमूल्य वस्त्र या लोह आदि धातु मेरा है, यह प्रचुर धन यह बहुत-सा कनक, ये रत्न, मणि, मोती, शंखशिला, प्रवाल, रक्तरत्न, पद्मराग आदि उत्तमोत्तम मणियाँ और पैत्रिक नकद धन, मेरे हैं, ये वीणा, वेणु आदि वाद्य मेरे हैं, ये सुन्दर और रूपवान् पदार्थ मेरे हैं, ये सुगन्धित पदार्थ मेरे हैं, ये उत्तमोत्तम स्वादिष्ट एवं सरस खाद्य पदार्थ मेरे हैं, ये कोमल-कोमल स्पर्श वाले गद्दे, तोशक आदि पदार्थ मेरे हैं । ये पूर्वोक्त पदार्थ-समूह मेरे कामभोग के साधन हैं, मैं इनका योगक्षेम करने वाला हूँ, अथवा उपभोग करने में समर्थ हूँ।
वह मेघावी साधक स्वयं पहले से ही यह भलीभाँति जान ले कि "इस संसार में जब मुझे कोई राग या आतंक उत्पन्न होता है, जो कि मुझे इष्ट नहीं है, कान्त नहीं है, प्रिय नहीं है, अशुभ है, अमनोज्ञ है, अधिक पीड़ाकारी है, दुःखरूप है, भय का अन्त करने वाले मेरे धनधान्य आदि कामभोगों ! मेरे इस अनिष्ट, अकान्त, अशुभ, अमनोज्ञ, अतीव दुःखद, दुःखरूप या असुखरूप रोग, आतंक आदि को तुम बाँट कर ले लो; क्योंकि मैं इस पीड़ा, रोग या आतंक से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, मैं चिन्ता या शोक से व्याकुल हूँ, इनके कारण मैं बहुत चिन्ताग्रस्त हूँ, मैं अत्यन्त पीड़ित हूँ, मैं बहुत ही वेदना पा रहा हूँ, या अतिसंतप्त हूँ | अतः तुम सब मुझे इस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अवमान्य, दुःखरूप या असुखरूप मेरे किसी एक दुःख से या रोगांतक से मुझे मुक्त करा दो । तो वे पदार्थ उक्त प्रार्थना सून कर दुःखादि से मुक्त करा दे, ऐसा कभी नहीं होता।
इस संसार में वास्तव में, कामभोग दुःख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते । इन कामभोगों का उपभोक्ता किसी समय तो पहले से ही स्वयं इन कामभोग पदार्थों को छोड़ देता है, अथवा किसी समय पुरुष को कामभोग पहले ही छोड़ देते हैं । इसलिए ये कामभोग मेरे से भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ | फिर हम क्यों अपने से भिन्न इन कामभोगों में मूर्च्छित-आसक्त हों । इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप जानकर हम इन कामभोगों का परित्याग कर देंगे । बुद्धिमान साधक जान ले, ये सब कामभोगादि पदार्थ बहिरंग हैं, मेरी आत्मा से भिन्न हैं । इनसे तो मेरे निकटतर ये ज्ञातिजन हैं जैसे कि ''यह मेरी माता है, मेरे पिता हैं, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, ये मेरे दास हैं, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा मित्र है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी है। ये मेरे ज्ञातिजन है, और मैं भी इनका आत्मीयजन हूँ।
बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करूँ कि हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनों ! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् दुःखरूप या असुखरूप दुःख या रोगांतक को आप लोग बराबर बाँट ले, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित यावत् अतिसंतप्त न होऊं | आप सब मुझे इस अ उत्पीड़क दुःख या रोगांतक से मुक्त करा दें । इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख और रोगांतक को बाँट कर ले ले, या मुझे इस दुःख या रोगांतक से मुक्त करा दे, ऐसा कदापि नहीं होता । अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट, यावत् दुःख या रोगांतक को बाँट कर ले लूँ, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाए यावत् वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उनके किसी अनिष्ट यावत् दुःख या रोगांतक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता ।
(क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बाँट कर नहीं ले सकता । दूसरे के द्वारा कृत कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता । प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही त्याग करता है, अकेला ही उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन-चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान होता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सुख-दुःख का वेदन करता है । अतः पूर्वोक्त प्रकार से मनुष्य के पहले छोड़ देता है । अतः 'ज्ञातिजनसंयोग मेरे से भिन्न है, मैं भी ज्ञातिजनसंयोग से भिन्न हूँ।' तब फिर अपने से पृथक् इस ज्ञातिजनसंयोगमें क्यों आसक्त हों? यह भलीभाँति जानकर अब हम ज्ञातिसंयोग का परित्याग कर देंगे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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