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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
अध्ययन-५ - उद्देशक-२ सूत्र-४८३
___ साधु या साध्वी वस्त्रैषणा समिति के अनुसार एषणीय वस्त्रों की याचना करे, और जैसे भी वस्त्र मिले और लिए हों, वैसे ही वस्त्रों को धारण करे, परन्तु न उन्हें धोए, न रंगे और न ही धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्रों को पहने । उन साधारण-से वस्त्रों को न छिपाते हुए ग्राम-ग्रामान्तर में समतापूर्वक विचरण करे । यही वस्त्रधारी साधु का समग्र है।
वह साधु या साध्वी, यदि गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए जाना चाहे तो समस्त कपड़े साथ में लेकर उपाश्रय से नीकले और गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे । इसी प्रकार बस्ती के बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थंडिलभूमि में जाते समय एवं ग्रामानुग्राम विहार करते समय सभी वस्त्रों को साथ लेकर विचरण करे।
यदि वह यह जाने कि दूर-दूर तक तीव्र वर्षा होती दिखाई दे रही है तो यावत् पिण्डैषणा-समान सब आचरण करे । अन्तर इतना ही है कि वहाँ समस्त उपधि साथ में लेकर जाने का विधि-निषेध है, जबकि यहाँ केवल सभी वस्त्रों को लेकर जाने का विधि-निषेध है। सूत्र-४८४
कोई साधु मुहूर्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पाँच दिन तक निवास करके वापस आता है । इस बीच यह वस्त्र उपहत हो जाता है । लौटाने पर वस्त्र का स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे, लेकर दूसरे साधु को नहीं देवे; किसी को उधार भी नहीं देवे, उस वस्त्र के बदले दूसरा वस्त्र भी नहीं लेवे, दूसरे के पास जाकर ऐसा भी नहीं कहे कि-आयुष्मन् श्रमण ! आप इस वस्त्र को धारण करना चाहते हैं, इसका उपभोग करना चाहते हैं ? उस दृढ़ वस्त्र के टुकड़े-टुकड़े करके परिष्ठापन भी नहीं करे । किन्तु उस उपहत वस्त्र का स्वामी उसी उपहत करने वाले साधु को दे, परन्तु स्वयं उसका उपभोग न करे।
वह एकाकी साधु इस प्रकार की बात सुनकर उस पर मन में यह विचार करे कि सबका कल्याण चाहने वाले एवं भय का अन्त करने वाले ये पूज्य श्रमण उस प्रकार के उपहत वस्त्रों को उन साधुओं से, जो कि इनसे मुहूर्त भर आदि काल का उद्देश्य करके प्रातिहारिक ले जाते हैं, और एक दिन से लेकर पाँच दिन तक किसी ग्राम आदि में निवास करके आते हैं, न स्वयं ग्रहण करते हैं, न परस्पर एक दूसरे को देते हैं, यावत् न वे स्वयं उन वस्त्रों का उपयोग करते हैं । इस प्रकार बहुवचन का आलापक कहना चाहिए । अतः मैं भी मुहूर्त आदि का उद्देश करके इनसे प्रातिहारिक वस्त्र माँगकर एक दिन से लेकर पाँच दिन तक ग्रामान्तर में ठहरकर वापस लौट आऊं, जिससे यह वस्त्र मेरा हो जाएगा। ऐसा विचार करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है, अतः ऐसा विचार न करे। सूत्र - ४८५
साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण न करे, तथा विवर्ण वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे। मैं दूसरा नया वस्त्र प्राप्त कर लूँगा, इस अभिप्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे । दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे-आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना या पहनना चाहते हो ? इसके अतिरिक्त उस सुदृढ़ वस्त्र को टुकड़े-टुकड़े करके फेंके नहीं, साधु उसी प्रकार का वस्त्र धारण करे, जिसे गृहस्थ या अन्य व्यक्ति अमनोज्ञ समझे।
(वह साधु) मार्ग में सामने आते हुए चोरों को देखकर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से भयभीत होकर साधु उन्मार्ग से न जाए अपितु जीवन-मरण के प्रति हर्ष-शोक रहित, बाह्य लेश्या से मुक्त, एकत्वभाव में लीन होकर देह और वस्त्रादि का व्युत्सर्ग करके समाधिभाव में स्थिर रहे । इस प्रकार संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे।
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग के बीच में अटवी वाला लम्बा मार्ग हो, और वह जाने कि इस अटवीबहुल मार्ग में बहुत से चोर वस्त्र छीनने के लिए इकट्ठे होकर आते हैं, तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से न जाए, किन्तु देह और वस्त्रादि के प्रति अनासक्त यावत् समाधिभाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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