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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अन्दर-बाहर चारों ओर से भलीभाँति देलूँगा, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं-वस्त्र को प्रतिलेखना किये बिना लेना कर्मबन्धन का कारण है । कदाचित् उस वस्त्र के सिरे पर कुछ बँधा हो, कोई कुण्डल बँधा हो, या धागा, चाँदी, सोना, मणिरत्न, यावत् रत्नों की माला बँधी हो, या कोई प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बँधी हो । इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही इस प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि साधु वस्त्रग्रहण से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे। सूत्र - ४८१ साधु-साध्वी यदि ऐसे वस्त्र को जाने जो कि अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनैषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । साधु या साध्वी यदि जाने के यह वस्त्र अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ है, अस्थिर है, या जीर्ण है, अध्रुव है, धारण करने के योग्य नहीं है, तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक और अनैषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। साधु या साध्वी यदि ऐसा वस्त्र जाने, जो कि अण्डों से, यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, साथ ही वह वस्त्र अभीष्ट कार्य करने में समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य है, दाता की रुचि को देखकर साधु के लिए भी कल्पनीय हो तो उस प्रकार के वस्त्र को प्रासुक और एषणीय समझकर प्राप्त होने पर साधु ग्रहण कर सकता है। मेरा वस्त्र नया नहीं है। ऐसा सोचकर साधु या साध्वी उसे थोड़े व बहुत सुगन्धित द्रव्य से यावत् पद्मराग से आघर्षित-प्रघर्षित न करे । मेरा वस्त्र नूतन नहीं है, इस अभिप्राय से साधु या साध्वी उस मलिन वस्त्र को बहुत बार थोड़े-बहुत शीतल या उष्ण प्रासुक जल से एक बार या बार-बार प्रक्षालन न करे । मेरा वस्त्र दुर्गन्धित है। यों सोचकर उसे बहत बार थोडे-बहत सुगन्धित द्रव्य आदि से आघर्षित-प्रघर्षित न करे, न ही शीतल या उष्ण प्रासक जल से उसे एक बार या बार-बार धोए। यह आलापक भी पूर्ववत् है। सूत्र-४८२ संयमशील साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में कम या अधिक सूखाना चाहे तो वह वैसे वस्त्र को सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध पृथ्वी पर, तथा ऊपर से सचित्त मिट्टी गिरती हो, तथा ऐसी पृथ्वी पर, सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, जिसमें धुन या दीमक का निवास हो ऐसी जीवाधिष्ठित लकड़ी पर प्राणी, अण्डे, बीज, मकड़ी के जाले आदि जीवजन्तु हों, ऐसे स्थान में थोड़ा अथवा अधिक न सूखाए। संयमशील साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में कम या अधिक सूखाना चाहे तो वह उस प्रकार के वस्त्र को ढूंठ पर, दरवाजे की देहली पर, ऊखल पर, स्नान करने की चौकी पर, इस प्रकार के और भी भूमि से ऊंचे स्थान पर जो भलीभाँति बंधा हुआ नहीं है, ठीक तरह से भूमि पर गाड़ा हुआ या रखा हुआ नहीं है, निश्चल नहीं है, हवा से इधर-उधर चलविचल हो रहा है, (वहाँ, वस्त्र को) आताप या प्रताप न दे। साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में थोड़ा या बहुत सूखाना चाहते हों तो घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला पर, रोड़े-पथ्थर पर, या अन्य किसी उस प्रकार के अंतरीक्ष (उच्च) स्थान पर जो कि भलीभाँति बंधा हुआ, या जमीन पर गड़ा हुआ नहीं है, चंचल आदि है, यावत् थोड़ा या अधिक न सूखाए । यदि साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में थोड़ा या अधिक सूखाना चाहते हों तो उस वस्त्र को स्तम्भ पर, मंच पर, ऊपर की मंजिल पर, महल पर, भवन के भूमिगृह में, अथवा इसी प्रकार के अन्य ऊंचे स्थानों पर जो कि दुर्बद्ध, दुर्निक्षिप्त, कंपित एवं चलाचल हो, थोड़ा या बहुत न सूखाए। साधु उस वस्त्र को लेकर एकान्त में जाए; वहाँ जाकर (देखे कि) जो भूमि अग्र से दग्ध हो, यावत् वहाँ अन्य कोई उस प्रकार की निरवद्य अचित्त भूमि हो, उस निर्दोष स्थंडिलभूमि का भलभाँति प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके तत्पश्चात् यतनापूर्वक उस वस्त्र को थोड़ा या अधिक धूप में सूखाए। यही उस साधु या साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, जिसमें सभी अर्थों एवं ज्ञानादि आचार से सहित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 93
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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