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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-५- वस्त्रषणा उद्देशक-१ सूत्र - ४७५ साधु या साध्वी वस्त्र की गवेषणा करना चाहते हैं, तो उन्हें वस्त्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-जांगमिक, भांगिक, सानिक, पोत्रक, लोमिक और तूलकृत । तथा इसी प्रकार के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है। जो निर्ग्रन्थ मुनि तरुण है, समय के उपद्रव से रहित है, बलवान, रोगरहित और स्थिर संहनन है, वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा नहीं । जो साध्वी है, वह चार संघाटिका धारण करे-उसमें एक, दो हाथ प्रमाण विस्तृत, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण लम्बी होनी चाहिए । इस प्रकार के वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सिले। सूत्र - ४७६ साधु-साध्वी को वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आधे योजन से आगे जाने का विचार करना नहीं चाहिए। सूत्र-४७७ साधु या साध्वी को यदि वस्त्र के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाए कि कोई भावुक गृहस्थ धन के ममत्व से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा करके किसी एक साधर्मिक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके यावत् (पिण्डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मिलने पर भी न ले।। तथा पिण्डैषणा अध्ययन में जैसे बहुत-से साधर्मिक साधु, एक साधर्मिणी साध्वी, बहुत-सी साधर्मिणी साध्वीयाँ, एवं बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर तथा बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मणादि का उद्देश्य रखकर जैसे क्रीत आदि तथा पुरुषान्तरकृत आदि विशेषणों से युक्त आहार ग्रहण का निषेध किया गया है, उसी प्रकार यहाँ सारा वर्णन समझ लेना। सूत्र - ४७८ साधु या साध्वी यदि किसी वस्त्र के विषय में यह जान जाए कि असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से उसे खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिस कर साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया है, सुवासित किया है और ऐसा वह वस्त्र अभी पुरुषान्तरकृत यावत् दाता द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, तो ग्रहण न करे । यदि साधु या साध्वी यह जान जाए कि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो मिलने पर ग्रहण कर सकता है। सूत्र - ४७९ साधु-साध्वी यदि ऐसे नाना प्रकार के वस्त्रों को जाने, जो कि महाधन से प्राप्त होने वाले वस्त्र हैं, जैसे किआजिनक, श्लक्ष्ण, श्लक्ष्ण कल्याण, आजक, कायक, क्षौमिक दुकूल, पट्टरेशम के वस्त्र, मलयज के सूते से बने वस्त्र, वल्कल तन्तुओं से निर्मित वस्त्र, अंशक, चीनांशुक, देशराग, अमिल, गर्जल, स्फटिक तथा अन्य इसी प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होने पर भी विचारशील साधु उन्हें ग्रहण न करे । साधु या साध्वी यदि चर्म से निष्पन्न ओढ़ने के वस्त्र जाने जैसे कि औद्र, पेष, पेषलेश, स्वर्णरस में लिपटे वस्त्र, सोने कही कान्ति वाले वस्त्र, सोने के रस की पट्टियाँ दिये हुए वस्त्र, सोने के पुष्प गुच्छों से अंकित, सोने के तारों से जटित और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म, आभरणों से मण्डित, आभरणों से चित्रित ये तथा अन्य इसी प्रकार के चर्म-निष्पन्न वस्त्र प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। सूत्र-४८० इन दोषों के आयतनों को छोड़कर चार प्रतिमाओं से वस्त्रैषणा करनी चाहिए। पहली प्रतिमा-वह साधु या साध्वी मन में पहले संकल्प किये हुए वस्त्र की याचना करे, जैसे कि-जांगमिक, भांगिक, सानज, पोत्रक, क्षौमिक या तूलनिर्मित वस्त्र, उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक और एषणीय होने पर ग्रहण करे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 91
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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