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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक यावत् जीवोपघात-रहित भाषा विचारपूर्वक बोले।
साधु या साध्वी बहुत मात्रा में पैदा हुई औषधियों को देखकर यों न कहे, कि ये पक गई हैं, या ये अभी कच्ची या हरी हैं, ये छवि वाली हैं, ये अब काटने योग्य हैं, ये भूनने या सेकने योग्य हैं, इनमें बहुत-सी खाने योग्य हैं। इस प्रकार सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा साधु न बोले । इस प्रकार कह सकता है, कि इनमें बीज अंकुरित हो गए हैं, ये अब जम गई हैं, सुविकसित या निष्पन्नप्रायः हो गई हैं, या अब ये स्थिर हो गई हैं, ये ऊपर उठ गई हैं, ये भुट्टों, सिरों, या बालियों से रहित हैं, अब ये भुट्टों आदि से युक्त हैं, या धान्य-कणयुक्त हैं । साधु या साध्वी इस प्रकार निरवद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा बोले। सूत्र- ४७३
साधु या साध्वी कईं शब्दों को सुनते हैं, तथापि यों न कहे, जैसे कि-यह मांगलिक शब्द है, या यह अमांगलिक शब्द है । इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातक भाषा न बोले । कभी बोलना हो तो सुशब्द को यह सुशब्द है और दुःशब्द को यह दुःशब्द है ऐसी निरवद्य यावत् जीवोपघातरहित भाषा बोले । इसी प्रकार रूपों के विषय मेंकृष्ण को कृष्ण, यावत् श्वेत को श्वेत कहे, गन्धों के विषय में सुगन्ध को सुगन्ध और दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे, रसों के विषय में तिक्त को तिक्त, यावत् मधुर को मधुर कहे, स्पर्शों के विषय में कर्कश को कर्कश यावत् उष्ण को उष्ण कहे। सूत्र - ४७४
साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करके विचारपूर्वक निष्ठाभासी हो, सून-समझकर बोले, अत्वरितभाषा एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो और भाषासमिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे।
यही वास्तव में साधु-साध्वी के आचार का सामर्थ्य है, जिसमें वह सभी ज्ञानादि अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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