________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक गिरिगृह, गृहागृह, भवन आदि; इनके विषय में ऐसा न कहे; जैसे कि यह अच्छा बना है, भलीभाँति तैयार किया गया है, सुन्दर बना है, यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है; इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातक भाषा न बोले।
साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि खेतों की क्यारियाँ यावत् भवनगृह; तथापि इस प्रकार कहें-जैसे कि यह आरम्भ से बना है, सावधकृत है, या यह प्रयत्न-साध्य है, इसी प्रकार जो प्रसादगुण से युक्त हो, उसे प्रासादीय, जो देखने योग्य हो, उसे दर्शनीय, जो रूपवान हो उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो उसे प्रतिरूप कहे । इस प्रकार विचारपूर्वक असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का प्रयोग करे। सूत्र- ४७१
साधु या साध्वी अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर भी इस प्रकार न कहे जैसे कि यह आहारादि पदार्थ अच्छा बना है, या सुन्दर बना है, अच्छी तरह तैयार किया गया है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने योग्य है । इस प्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावध यावत् जीवोपघातक जानकर न बोले।
इस प्रकार कह सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि पदार्थ आरम्भ से बना है, सावद्यकृत् है, प्रयत्नसाध्य है या भद्र है, उत्कृष्ट है, रसिक है, या मनोज्ञ है; इस प्रकार असावद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषाप्रयोग करे।
वह साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, साँड़, भैंसे, मृग या पशु-पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को देखकर ऐसा न कहे कि वह स्थूल है, इसके शरीर में बहुत चर्बी है, यह गोलमटोल है, यह वध या वहन करने योग्य है, यह पकाने योग्य है। इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवघातक भाषा का प्रयोग न करे। सूत्र - ४७२
संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, बैल, यावत् किसी भी विशालकाय प्राणी को देखकर ऐसे कह सकता है कि यह पुष्ट शरीर वाला है, उपचितकाय है, दृढ़ संहनन वाला है, या इसके शरीर में रक्त-माँस संचित हो गया है, इसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं । इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा बोले ।
साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गोजाति के पशुओं को देखकर ऐसा न कहे कि ये गायें दूहने योग्य हैं अथवा इनको दूहने का समय हो रहा है, तथा यह बैल दमन करने योग्य है, यह वृषभ छोटा है, या यह वहन करने योग्य है, यह रथ में जोतने योग्य है, इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातक भाषा का प्रयोग न करे।
इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि-यह वृषभ जवान है, यह गाय प्रौढ़ है, दुधारू है, यह बैल बड़ा है, यह संवहन योग्य है। इस प्रकार असावद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा का प्रयोग करे।
संयमी साधु या साध्वी किसी प्रयोजनवश किन्हीं बगीचों में, पर्वतों पर या वनों में जाकर वहाँ बड़े-बड़े वृक्षों को देखकर ऐसे न कहे, कि-यह वृक्ष (काटकर) मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण-नगर का मुख्य द्वार बनाने योग्य है, यह घर बनाने योग्य है, यह फलक (तख्त) बनाने योग्य है, इसकी अर्गला बन सकती है, या नाव बन सकती है, पानी की बड़ी कुंडी अथवा छोटी नौका बन सकती है, अथवा यह वृक्ष चौकी काष्ठमयी पात्री, हल, कुलिक, यंत्रयष्टि नाभि, काष्ठमय, अहरन, काष्ठ का आसन आदि बनाने के योग्य है अथवा काष्ठशय्या रथ आदि यान, उपाश्रय आदि के निर्माण के योग्य है। इस प्रकार सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा साधु न बोले । इस प्रकार कह सकते हैं कि ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, दीर्घ हैं, वृत्त हैं, ये महालय हैं, इनकी शाखाएं फट गई हैं, इनकी प्रशाखाएं दूर तक फैली हुई हैं, ये वृक्ष प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं । इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा का प्रयोग करे।
साधु या साध्वी प्रचुर मात्रा में लगे हुए वन फलों को देखकर इस प्रकार न कहे जैसे कि-ये फल पक गए हैं, या पराल आदि में पकाकर खाने योग्य हैं, ये पक जाने से ग्रहण कालोचित फल हैं, अभी ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है, ये फल तोड़ने योग्य या दो टुकड़े करने योग्य है । इस प्रकार सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले । इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि ये फल वाले वृक्ष असंतृत हैं, इनके फल प्रायः निष्पन्न हो चूके हैं, ये वृक्ष एक साथ बहुत-सी फलोत्पत्ति वाले हैं, या ये भूतरूप-कोमल फल हैं । इस प्रकार असावद्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद”
Page 89