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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/ चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक अध्ययन- १ उद्देशक-५
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सूत्र - ४०
मैं संयम अंगीकार करके वह हिंसा नहीं करूँगा । बुद्धिमान संयम में स्थिर होकर मनन करे और प्रत्येक जीव अभय चाहता है' यह जानकर (हिंसा न करे) जो हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत्-शासन में जो व्रती है, वह अनगार है ।
सूत्र - ४१
गुण (विषय) है, वह आवर्त/संसार है। जो आवर्त है वह गुण है ।
सूत्र- ४२, ४३
ऊंचे, नीचे, तीरछे, सामने देखने वाला रूपों को देखता है। सूनने वाला शब्दों को सुनता है। ऊंचे नीचे, तीरछे, विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति करने वाला, रूपों में मूर्च्छित होता है, शब्दों में मूर्च्छित होता है । यह (आसक्ति) ही संसार है । जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है। इन्द्रिय एवं मन से असंयत है, वह आज्ञा-धर्म-शासन के बाहर है । सूत्र - ४४, ४५
जो बार-बार विषयों का आस्वाद करता है, उनका भोग-उपभोग करता है, वह वक्रसमाचार अर्थात् असंयममय जीवनवाला है।...... वह प्रमत्त है तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। । सूत्र - ४६
तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं । हम गृहत्यागी हैं, यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शास्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं। वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
इस विषयमें भगवान ने परिज्ञा की है - इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, वह स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करनेवाले का अनुमोदन करता है। यह उसके अहित के लिए होता है। उसकी अबोधि के लिए होता है। यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। भगवान से या त्यागी अनगारों के समीप सूनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है - यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त हुआ, नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और वनस्पतिकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।
सूत्र - ४७
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मैं कहता हूँ यह मनुष्य भी जन्म लेता है यह वनस्पति भी जन्म लेती है। यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है । यह मनुष्य भी चेतना युक्त है, यह वनस्पति भी चेतना युक्त है। यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान हो जाता है । यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । यह मनुष्य भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती है । यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति शरीर भी अनित्य है । यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति शरीर भी अशाश्वत है । यह मनुष्य शरीर भी आहार से उपचित होता है, आहार के अभाव में अपचित होता है, यह वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है । यह मनुष्य शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। सूत्र - ४८
जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ करता है, वह उन आरंभो / आरंभजन्य कटुफलों से अनजान रहता है। जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरंभ परिज्ञात है। यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारंभ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसात्यागी) मुनि है। ऐसा मैं कहता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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