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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
अध्ययन-१- उद्देशक-६ सूत्र-४९, ५०
___ मैं कहता हूँ ये सब त्रस प्राणी हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक । यह संसार कहा जाता है। मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है।
मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ-प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण चाहता है। सूत्र-५१
सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता और अपरिनिर्वाण ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं । मैं ऐसा कहता हूँ। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब ओर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं। सूत्र - ५२
तू देख, विषय-सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते हैं।
त्रसकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित रहते हैं। सूत्र-५३
तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं और उनको भी देख, जो हम गृहत्यागी हैं यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं । त्रसकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं । इस विषय में भगवान ने परिज्ञा है।
कोई मनुष्य इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है । यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है । अबोधि के लिए होती है।
वह संयमी, उस हिंसा को/हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक् प्रकार से समझते हुए संयममें तत्पर हो जाए। भगवान से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सूनकर कुछ मनुष्य यह जान लेते हैं कि यह हिंसा ग्रन्थि है, मृत्यु है, मोह है, नरक है। फिर भी मनुष्य इस हिंसा में आसक्त होता है । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है। त्रसकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ करता है। सूत्र- ५४
मैं कहता हूँ कुछ मनुष्य अर्चा के लिए जीवहिंसा करते हैं । कुछ मनुष्य चर्म के लिए, माँस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं । कुछ प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) हिंसा की, इस कारण हिंसा करते हैं । कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की) हिंसा करता है, इस कारण से हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण हिंसा करते हैं। सूत्र- ५५
जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभजनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित है । यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे।
जिसने त्रसकाय-सम्बन्धी समारंभों (हिंसा के हेतुओं/उपकरणों/कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञात कर्मा मुनि होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ - उद्देशक-७ सूत्र - ५६
अतः वायुकायिक जीवों की दुगंछा करने में समर्थ होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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