________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-५७
साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को भी जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है । इस तुला का अन्वेषण कर, चिन्तन कर । सूत्र - ५८
इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त-(कषाय जिनके उपशान्त हो गए हैं) और दयाहृदय वाले मुनि हैं, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते । सूत्र- ५९
तू देख ! प्रत्येक संयमी पुरुष हिंसा में लज्जा का अनुभव करता है । उन्हें भी देख, जो हम गृहत्यागी हैं यह कहते हुए विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय का समारंभ करते हैं । वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं।
इस विषय में भगवान ने परिज्ञा निरूपण किया है। कोई मनुष्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोक्ष के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से वायुकाय का समारंभ करवाता है तथा समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है । वह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है । वह हिंसा, उसकी अबोधि के लिए होती है।
वह अहिंसा-साधक, हिंसा को समझता हुआ संयम में सुस्थिर हो जाता है।
भगवान के या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सूनकर उन्हें यह ज्ञात होता है कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त हुआ, विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय की हिंसा करता है। वायुकाय की हिंसा करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। सूत्र - ६०
मैं कहता हूँ-संपातिम-प्राणी होते हैं । वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे गिर जाते हैं । वे प्राणी वायु का स्पर्श होने से सिकुड़ जाते हैं । जब वे वायु-स्पर्श से संघातित होते हैं, तब मूर्च्छित हो जाते हैं । जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं । जो वहाँ वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह इन आरंभों से वास्तव में अनजान है।
जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता, वास्तव में उसने आरंभ को जान लिया है । यह जानकर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारंभ न करे । दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए । वायुकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) है ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र - ६१
तुम यहाँ जानो ! जो आचार में रमण नहीं करते, वे कर्मों से बंधे हुए हैं । वे आरंभ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं अथवा दूसरों को विनय-संयम का उपदेश करते हैं । ये स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं। वे आरंभ में आसक्त रहते हुए पुनः पुनः कर्म का संग करते हैं। सूत्र-६२
____ वह वसुमान् (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूप धनयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तः करण से पापकर्म को अकरणीय जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण भी न करे । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट्जीवनिकाय का समारंभ न करे । दूसरों से समारंभ न करवाए । समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे।
जिसने षट्-जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभाँति समझ लिया, त्याग दिया है, वही परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 11