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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-२-लोकविजय
उद्देशक-१ सूत्र-६३
जो गुण (इन्द्रियविषय) हैं, वह (कषायरुप संसार का) मूल स्थान है । जो मूल स्थान है, वह गुण है । इस प्रकार विषयार्थी पुरुष, महान परिताप से प्रमत्त होकर, जीवन बीताता है । वह इस प्रकार मानता है, मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा सखा-स्वजन-सम्बन्धीसहवासी है, मेरे विविध प्रचुर उपकरण, परिवर्तन, भोजन तथा वस्त्र है । इस प्रकार - मेरेपन में आसक्त हुआ पुरुष, प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है।
वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त/चिन्ता एवं तृष्णा से आकुल रहता है । काल या अकाल में प्रयत्नशील रहता है, वह संयोग का अर्थी होकर, अर्थ का लोभी बनकर लूटपाट करने वाला बन जाता है । सहसाकारी-दुःसाहसी और बिना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है । विविध प्रकार की आशाओं में उसका चित्त फँसा रहता है। वह बार-बार शस्त्र-प्रयोग करता है। संहारक बन जाता है।
इस संसार में कुछ-एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है। जैसेसूत्र-६४
श्रोत्र-प्रज्ञान के परिहीन हो जाने पर, इसी प्रकार चक्षु-प्रज्ञान के, घ्राण-प्रज्ञान के, रस-प्रज्ञान के और स्पर्श प्रज्ञान के परिहीन होने पर (वह अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।) वय-अवस्था को तेजी से जाते हुए देखकर वह चिंताग्रस्त हो जाता है और फिर वह एकदा मूढभाव को प्राप्त हो जाता है। सूत्र- ६५
वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं । बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है । हे पुरुष ! वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तू भी उन्हें त्राण, या शरण देने में समर्थ नहीं है। वह वृद्ध पुरुष, न हँसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति-सेवन के और न शृंगार के योग्य रहता है। सूत्र- ६६
इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना के लिए प्रस्तुत हो जाए । इस जीवन को एक स्वर्णिम अवसर समझकर धीर पुरुष मुहूर्त्तभर भी प्रमाद न करे। अवस्थाएं बीत रही हैं । यौवन चला जा रहा है। सूत्र-६७
जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। अकृत काम मैं करूँगा इस प्रकार मनोरथ करता रहता है। जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं । वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह-सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनको त्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो। सूत्र-६८
(मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित-संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है । उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग के लिए उपयोग में लेता है । (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है।
जिन स्वजन-स्नेहीयों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आदि के कारण धृणा करके) पहले छोड़ देते हैं । बाद में वह भी अपने स्वजन-स्नेहीयों को छोड़ देता है।
हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं, और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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