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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ६९, ७०
प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख ..... अपना-अपना है, यह जानकर (आत्मद्रष्टा बने)।
सूत्र-७१
जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पण्डित ! क्षण (समय) को/अवसर को जान। सूत्र-७२
जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र-प्रज्ञान, घ्राण-प्रज्ञान, रसना-प्रज्ञान और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण हैं, तब तक - इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२ - उद्देशक-२ सूत्र-७३
जो अरति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान है। वह बुद्धिमान विषय-तृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है। सूत्र-७४
अनाज्ञा में (वीतराग विहित-विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई-कोई संयम-जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं । वे मंदबुद्धि-अज्ञानी मोह से आवृत्त रहते हैं।
कुछ व्यक्ति - हम अपरिग्रही होंगे - ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम-सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित होता है, तो उसमें फँस जाते हैं । वे मुनि वीतराग-आज्ञा से बाहर (विषयों की ओर) देखने/ताकने लगते हैं।
इस प्रकार वे मोह में बार-बार निमग्न हो जाते हैं । इस दशा में वे न तो इस तीर (गृहवास) पर आ सकते हैं और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं। सूत्र - ७५
जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं । अलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ-विजय ही पार पहुँचने का मार्ग है) सूत्र-७६
जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण से मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है । जो प्रतिलेखना कर, विषय-कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है।
(जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात-दिन परितप्त रहता है । काल या अकाल में सतत प्रयत्न करता रहता है। विषयों को प्राप्त करने का ईच्छुक होकर धन का लोभी बनता है। चोर व लूटेरा बनता है। उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है। और वह पुनः-पुनः शस्त्र-प्रयोग करता रहता है । वह आत्म-बल, ज्ञाति-बल, मित्र-बल, प्रेत्य-बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल के संग्रह के लिए अनेक प्रकार के कार्यों द्वारा दण्डप्रयोग करता है।
कोई किसी कामना से एवं कोई भय के कारण हिंसा आदि करता है । कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से हिंसा करता है। कोई किसी आशा से हिंसा-प्रयोग करता है। सूत्र-७७
यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताए गए प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे। यह मार्ग आर्य पुरुषों ने बताया है। कुशलपुरुष इन विषयों में लिप्त न हों ऐसा मैं कहता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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