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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-२ - उद्देशक-३ सूत्र-७८ यह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त हो चूका हो । इसलिए यहाँ न तो कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त है । यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे । यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा ? और कौन किस एक गोत्र में आसक्त होगा ? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित न हो । प्रत्येक जीव को सुख प्रिय है। सूत्र-७९ यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर । जो समित है वह इसको देखता है । जैसे-अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातोंदुखों का अनुभव करता है। सूत्र-८० वह प्रमादी पुरुष कर्म-सिद्धान्त को नहीं समझाता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत - पुनः पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है । जो मनुष्य, क्षेत्र-खुली भूमि तथा वास्तु-भवन-मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है । वे रंग-बिरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्य-स्वर्ण और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं। परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम-इन्द्रिय-निग्रह होता है और न नियम होता है । वह अज्ञानी, ऐश्वर्य पूर्ण सम्पन्न जीवन जीने की कामना करता रहता है । बार-बार सुख-प्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है। किन्तु सुखों की अ-प्राप्ति व कामना की व्यथा से पीड़ित हुआ वह मूढ़ विपर्यास को ही प्राप्त होता है। सूत्र- ८१ जो पुरुष ध्रुवचारी होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते । वे जन्म-मरण के चक्र को जानकर द्रढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें। सूत्र-८२ काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी क्षण आ सकती है । सब को आयुष्य प्रिय है । सभी सुख का स्वाद चाहते हैं । दुःख से धबराते हैं । वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं । सब को जीवन प्रिय है। वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद और चतुष्पद का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है । उनको कार्य में नियुक्त करता है । फिर धन का संग्रह करता है । अपने, दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धनसंग्रह हो जाता है । वह उस अर्थ में गृद्ध हो जाता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है । पश्चात् वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपुल अर्थ-सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है। एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दायाद हिस्सा लेते हैं, चोर चूरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है । या कभी गृह-दाह के साथ जलकर समाप्त हो जाती है। __इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त हो वह सुख खोजता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है। वह मूढ़ विपर्यास को प्राप्त होता है। । भगवान ने यह बताया है । ये मूढ़ मनुष्य संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते । वे अतीरंगम हैं, तीरकिनारे तक पहुँचने में समर्थ नहीं होते । वे अपारंगम हैं, पार पहुँचने में समर्थ नहीं होते। वह (मूढ) आदानीय (संयम-पथ) को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता । अपनी मूढ़ता के कारण वह असत्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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