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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-८३ जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम-सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता । वह दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में बार-बार भटकता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-२ - उद्देशक-४ सूत्र-८४ तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग-उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं । वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है । हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है । दुःख और सुख-प्रत्येक आत्मा का अपना-अपना है, यह जानकर (इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे) । कुछ मनुष्य, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, वे बार-बार भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं। सूत्र-८५ यहाँ पर कुछ मनुष्यों को अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ-मात्रा हो जाती है । वह फिर उस अर्थ-मात्रा में आसक्त होता है । भोग के लिए उसकी रक्षा करता है । भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते हैं, चोर उसे चूरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेता है, वह अन्य प्रकार से नष्ट-विनष्ट हो जाती है । गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है। अज्ञानी मनुष्य इस प्रकार दूसरों के लिए अनेक क्रूर कर्म करता हुआ (दुःख के हेतु का निर्माण करता है) फिर दुःखोदय होने पर वह मूढ़ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है। सूत्र-८६ हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे । उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है । जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण-भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह संसार स्त्रियों के द्वारा पराजित है । हे पुरुष ! वे (स्त्रियों से पराजित जन) कहते हैं - ये स्त्रियाँ आयतन हैं (किन्तु उनका) यह कथन, दुःख के लिए एवं मोह, मृत्यु, नरक तथा नरक-तिर्यंच गति के लिए होता है। सतत मूढ़ रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता । भगवान महावीर ने कहा है- महामोह में अप्रमत्त रहे। बुद्धिमान पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए । शान्ति और मरण को देखने वाला (प्रमाद न करे) यह शरीर भंगुरधर्मा हे, यह देखने वाला (प्रमाद न करे)। ये भोग (तेरी अतृप्ति की प्यास बुझाने में) समर्थ नहीं है । यह देख । तुझे इन भोगों से क्या प्रयोजन है ? सूत्र-८७ हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान भयरूप हैं । भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर । वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता। यह मुझे भिक्षा नहीं देता ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए । गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर शान्त भाव से वापस लौट जाए। मुनि इस मौन (मुनिधर्म) का भलीभाँति पालन करे। अध्ययन-२- उद्देशक-५ सत्र-८८ असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए कर्म समारंभ करते हैं । जैसे-अपने लिए, पुत्र, मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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