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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पुत्री, पुत्र-वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए । इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि
और सन्निचय करते रहते हैं। सूत्र-८९
संयम-साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। वह यह शिक्षा का समय-संधि है यह देखकर (भिक्षा के लिए जाए) । वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे।
वह (अनगार) सब प्रकार के आमगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार) का परिवर्जन करता हुआ निर्दोष भोजन के लिए परिव्रजन करे। सूत्र-९०
वह वस्तु के क्रय-विक्रय में संलग्न न हो । न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे । वह भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। सूत्र - ९१
वह राग और द्वेष-दोनों का छेदन कर नियम तथा अनासक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है । वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन, अवग्रह और कटासन आदि (जो गृहस्थ के लिए निर्मित हों) उनकी याचना करे। सूत्र- ९२
आहार प्राप्त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए । ईच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका मद नहीं करे । यदि प्राप्त न हो तो शोक न करे । यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। सूत्र- ९३
जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं, उस प्रकार न देखे - अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे । यह मार्ग आर्यो ने प्रतिपादित किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो । ऐसा मैं कहता हूँ सूत्र- ९४
ये काम दुर्लघ्य है । जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता, यह पुरुष कामभोग की कामना रखता है (किन्तु यह परितृप्त नहीं होती, इसलिए) वह शोक करता है फिर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप से दुःखी होता रहता है। सूत्र-९५
वह आयतचक्षु-दीर्घदर्शी लोकदर्शी होता है । यह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तीरछे भाग को जानता है । (कामभोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में अनुपरिवर्तन करता रहता है।
यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)।
वह वीर प्रशंसा के योग्य है जो (कामभोग में) बद्ध को मुक्त करता है । (यह देह) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है । इस शरीर के भीतर-भीतर अशुद्धि भरी हुई है, साधक इसे देखें । देह से झरते हुए अनेक अशुचि-स्रोतों को भी देखें । इस प्रकार पंडित शरीर की अशुचिता को भली-भाँति देखें। सूत्र- ९६
वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्यागकर लार को न चाटे । अपने को तिर्यक्मार्ग में, (कामभोग के बीच में) न फँसाए । यह पुरुष सोचता है - मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूँगा (इस प्रकार) वह दूसरों को ठगता है, माया-कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँसकर मूढ़ बन जाता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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