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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वह मूढभाव से ग्रस्त फिर लोभ करता है और प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है । जो मैं यह कहता हूँ वह इस शरीर को पुष्ट बनाने के लिए ही ऐसा करता है । वह कामभोग में महान श्रद्धा रखता हुआ अपने को अमर की भाँति समझता है । तू देख, वह आर्त तथा दुःखी है । परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है। सूत्र - ९७
तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा-पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण-वध करता है। जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूँगा, यह मानता हुआ (जीव-वध करता है)। जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव-वध में सहभागी होता है)। (इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से क्या लाभ है ? जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह भी बाल-अज्ञानी है। अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२ - उद्देशक-६ सूत्र-९८
___ वह उसको सम्यक् प्रकार से जानकर संयम साधना से समुद्यत होता है । इसलिए वह स्वयं पापकर्म न करे, दूसरों से न करवाए (अनुमोदन भी न करे)। सूत्र - ९९
कदाचित् किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीव-कायों में (सभी का) समारंभ कर सकता है । वह सुख का अभिलाषी, बार-बार सुख की ईच्छा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी अत्यन्त दुःख भोगते हैं। यह जानकर परिग्रह का संकल्प त्याग देवे । यही परिज्ञा कहा जाता है। इसी से (परिग्रह-त्याग से) कर्मों की शान्ति होती है। सूत्र-१००
जो ममत्व-बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है।
वही द्रष्ट-पथ मुनि है, जीसने ममत्व का त्याग कर दिया है । यह जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने । लोक-संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे । वास्तव में उसे ही मतिमान् कहा गया है- ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र - १०१
वीर साधक अरति को सहन नहीं करता, और रति को भी सहन नहीं करता। इसलिए वह वीर इन दोनों में ही अविमनस्क रहकर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। सूत्र-१०२
मुनि (मधुर एवं कटु) शब्द (रूप, रस, गन्ध) और स्पर्श को सहन करता है । इस असंयम जीवन में होने वाले आमोद आदि से विरत होता है।
मुनि मौन (संयम) को ग्रहण करके कर्म-शरीर को धुन डालता है। सूत्र - १०३
वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे-सूखे का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं । वह मुनि, जन्म-मरणरूप संसार प्रवाह को तैर चूका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ। सूत्र-१०४
जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन से रहित है। वह धर्म का कथन करने में ग्लानि का अनुभव करता है, क्योंकि) वह चारित्र की द्रष्टि से तुच्छ जो है । वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक-संयोग से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है । यही न्याय्य (तीर्थंकरों का) मार्ग कहा जाता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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