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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१०५
यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख बताए हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा-विवेक बताते हैं । इस प्रकार कर्मों को जानकर सर्व प्रकार से (निवृत्ति करे) । जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है।
(आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ को भी धर्म उपदेश करता है और जैसे तुच्छ को धर्मोपदेश करता है, वैसे ही पुण्यवान को भी धर्मोपदेश करता है। सूत्र-१०६
कभी अनादर होने पर वह (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है । अतः यहाँ यह भी जाने धर्मकथा करना श्रेय नहीं है । पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए की यह पुरुष कौन है ? किस देवता को मानता है?
वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है । वह ऊंची, नीची और तीरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान के साथ चलता है। वह हिंसा-स्थान से लिप्त नहीं होता।
वह मेधावी है, जो अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता है, तथा जो कर्मों के बंधन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है । कुशल पुरुष न बंधे हुए हैं और न मुक्त हैं। सूत्र - १०७
उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे । हिंसा को जानकर उसका त्याग कर दे । लोक-संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। सूत्र - १०८
द्रष्टा के लिए कोई उद्देश (अथवा उपदेश) नहीं है । बाल बार-बार विषयों में स्नेह करता है । काम-ईच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता । वह दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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