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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-३- शीतोष्णीय
उद्देशक-१ सूत्र-१०९
अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं। सूत्र- ११०, १११
इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे।
जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से परिज्ञात किया है-(जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।
जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है । वह धर्मवेत्ता और ऋजु होता है । (वह) संग को आवर्त-स्रोत (जन्म-मरणादि चक्रस्रोत) के रूप में बहुत निकट से जान लेता है। सूत्र - ११२
वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है तथा स्पर्शजन्य सुख-दुःख का वेदन नहीं करता । जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार दुःखों से मुक्ति पा जाएगा।
बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य सतत मूढ़ बना रहता है । वह धर्म को नहीं जान पाता। सूत्र-११३
(सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे । हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (दुखियों) को देख । यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह) । मया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार-बार जन्म लेता है।
शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह ऋजु होता है, वह मार के प्रति सदा आशंकित रहता है और मृत्यु से मुक्त हो जाता है । जो कामभोगों के प्रति अप्रमत्त है, पाप कर्मों से उपरत है, वह पुरुष वीर और आत्मगुप्त होता है और जो (अपने आप में सुरक्षित होता है) वह खेदज्ञ होता है, अथवा वह क्षेत्रज्ञ होता है।
जो (शब्दादि विषयों की) विभिन्न पर्यायसमूह के निमित्त से होने वाले शस्त्र (असंयम) के खेद को जानता है, वह अशस्त्र के खेद को जानता है, वह (विषयों के विभिन्न) पर्यायों से होने वाले शस्त्र के खेद को जानता है।
कर्मों से मुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता । कर्म से उपाधि होती है। कर्म का भलीभाँति पर्यालोचन करके (उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे)। सूत्र- ११४
कर्म का मूल जो क्षण-हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे) । इन सबका सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष) अन्तों से अद्रश्य होकर रहे।
मेधावी साधक उसे (राग-द्वेषादि को) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े।) वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ़) लोक को जानकर लोकसंज्ञा का त्याग करके (संयमानुष्ठान में) पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-३ - उद्देशक-२ सूत्र-११५
हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और बुद्धि को देख । तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर । इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है) । समत्वदर्शी पाप नहीं करता।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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