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आगमसूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध / चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक
सूत्र- ११६
इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश है, उसे तोड़ डाल; क्योंकि ऐसे लोग हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक में शारीरिक, मानसिक कामभोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन करते हैं। ऐसे कामभोगों में आसक्त जन (कर्मों का संचय करते रहते हैं । (कर्मों की जड़ें) बार-बार सींची जाने से वे पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं ।
सूत्र - ११७
वह (काम-भोगासक्त मनुष्य) हास्य-विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है।
सूत्र - ११८
इसलिए अति विद्वान् परम-मोक्ष पद को जानकर जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप नहीं करता । हे धीर ! तू (इस आतंक - दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी हो जाता है।
सूत्र - ११९
वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है। वह मुनि भय को देख चूका है वह लोक में परम (मोक्ष) को देखता है । वह राग-द्वेष रहित शुद्ध जीवन जीता है। वह उपशान्त, समित, (ज्ञान आदि से) सहित होता । (अत एव ) सदा संयत होकर, मरण की आकांक्षा करता हुआ विचरण करता है ।
(इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध किया है।
सूत्र - १२०
( उन कर्मों को नष्ट करने हेतु तू सत्य में धृति कर इस में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण कर डालता है।
सूत्र - १२१
वह (असंयमी)पुरुष अनेक चित्तवाला है। वह चलनी को (जल से भरना चाहता है। (तृष्णा की पूर्ति के लिए) दूसरों के वध, परिताप, तथा परिग्रह के लिए तथा जनपद के वध, परिताप और परिग्रह के लिए (प्रवृत्ति करता है) । सूत्र - १२२
इस प्रकार कईं व्यक्ति इस अर्थ का आसेवन करके संयम साधना में संलग्न हो जाते हैं । इसलिए वे फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते ।
हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर) । केवल मनुष्यों के ही, जन्म-मरण नहीं, देवों के भी उपपात और च्यवन निश्चित हैं, यह जानकर (विषय-सुखों में आसक्त मत हो) । हे माहन ! तू अनन्य का आचरण कर । वह (अनन्यसेवी मुनि) प्राणियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे ।
तू (कामभोग-जनित) आमोद-प्रमोद से विरक्ति कर । प्रजाओं (स्त्रियों) में अरक्त रह । अनवमदर्शी (सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षदर्शी साधक) पापकर्मों से उदासीन रहता है ।
सूत्र - १२३
वीर पुरुष कषाय के आदि अंग-क्रोध और मान को मारे, लोभ को महान् नरक के रूप में देखे | इसलिए लघुबूत बनने का अभिलाषी, वीर हिंसा से विरत होकर स्रोतों को छिन्न-भिन्न कर डाले ।
सूत्र - १२४
हे वीर ! इस लोकमें ग्रन्थ (परिग्रह) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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