________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक इसी प्रकार (संसार के) स्रोत भी जानकर दान्त बनकर संयममें विचरण कर । यह जानकर की यहीं (मनुष्य जन्ममें) मनुष्यों द्वारा उन्मज्जन या कर्म-उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणों का समारम्भ न करे। ऐसा मैं कहता हूँ
अध्ययन-३ - उद्देशक-३ सूत्र-१२५
साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि समझकर प्रमाद करना उचित नहीं है। अपनी आत्मा के समान बाह्यजगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए।
जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उसका कारण मुनि होता है ? (नहीं) सूत्र-१२६
इस स्थिति में (मुनि) समता की द्रष्टि से पर्यालोचन करके आत्मा को प्रसाद रखे । ज्ञानी मुनि अनन्य परम के प्रति कदापि प्रमाद न करे । वह साधक सदा आत्मगुप्त और वीर रहे, वह अपनी संयम-यात्रा का निर्वाह परिमित आहार से करे।
वह साधक छोटे या बड़े रूपों- (द्रश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे। सूत्र-१२७
समस्त प्राणियों की गति और आगति को भलीभाँति जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष) से दूर रहता है, वह समस्त लोक में किसी से (कहीं भी) छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता। सूत्र-१२८
कुछ (मूढमति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल का स्मरण नहीं करते । वे चिन्ता नहीं करते की इसका अतीत क्या था, भविष्य क्या होगा ? कुछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो इसका अतीत था, वही भविष्य होगा। सूत्र - १२९
किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) न अतीत के अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के अर्थ का चिन्तन करते हैं। (जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत कर दिया है, ऐसे) विधूत समान कल्पवाला महर्षि इन्हीं के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है। सूत्र-१३०
उस (धूत-कल्प)योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है? वह इस विषय में बिलकुल ग्रहण रहित होकर विचरण करे । वह सभी प्रकार के हास्य आदि त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को तीन गुप्तियों से गुप्त करते हुए विचरण करे । हे पुरुष! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूँढ़ रहा है ? सूत्र-१३१
जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त दूर समझते हो उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो।
हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर । इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा । हे पुरुष! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है।
सत्य या ज्ञानादि से युक्त साधक धर्मग्रहण करके श्रेय (आत्म-हित) का सम्यक् प्रकार से अवलोकन करता है सूत्र-१३२
राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए प्रवृत्त होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 21