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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक कुछ साधक भी इन के लिए प्रमाद करते हैं। सूत्र-१३३
ज्ञानादि से युक्त साधक दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता । आत्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-३ - उद्देशक-४ सूत्र-१३४
वह (साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर देता है । यह दर्शन हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का है। जो कर्मों के आदान का निरोध करता है, वही स्व-कृत का भेत्ता है। सूत्र-१३५
जो एक को जानता है, वह सब को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। सूत्र - १३६
प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता । जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है।
साधक लोक के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे)
वीर साधक लोक के संयोग का परित्याग कर महायान को प्राप्त करते हैं । वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर जीवन की आकांक्षा नहीं रहती। सूत्र- १३७
एक को पृथक् करने वाला, अन्य (कर्मों) को भी पृथक् कर देता है, अन्य को पृथक् करने वाला, एक को भी पृथक् कर देता है । (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है।
साधक आज्ञा से लोक को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय हो जाता है । शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु अशस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर नहीं होता। सूत्र-१३८
जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है, जो मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है, जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है, जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है
(अतः) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को वापस लौटा दे । यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा-असंयम से उपरत एवं निरावरण द्रष्टा का दर्शन है।
जो पुरुष कर्म के आदान को रोकता है, वही कर्म का भेदन कर पाता है। क्या सर्व-द्रष्टा की कोई उपधि होती है ? नहीं होती । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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