________________
आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक जलकायिक जीवों पर शस्त्र-प्रयोग नहीं करता, वह आरंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा-दोष से मुक्त होता है । बुद्धिमान मनुष्य यह जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसको जल-सम्बन्धी समारंभ का ज्ञान होता है, वही परिज्ञातकर्मा (मुनि) होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ - उद्देशक-४
सूत्र-३२
मैं कहता हूँ-वह कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अपलाप न करे । न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे । क्योंकि जो लोक (अग्निकाय) का अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है। सूत्र-३३
जो दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है, वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है । जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक-शस्त्र का स्वरूप भी जानता है। सूत्र-३४
वीरों ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है । वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। सूत्र-३५, ३६
जो प्रमत्त है, गुणों का अर्थी है, वह हिंसक कहलाता है। ..... यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे) - अब मैं वह (हिंसा) नहीं करूँगा जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। सूत्र - ३७
तू देख ! संयमी पुरुष जीव-हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो हम अनगार हैं यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं । अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं।
इस विषय में भगवान ने परिज्ञा का निरूपण किया है । कुछ मनुष्य इस जीवन के लिए प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं। दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं। अग्निकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन करते हैं।
यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है। यह उनकी अबोधि के लिए होती है।
वह उसे भली भाँति समझे और संयम-साधना में तत्पर हो जाए। तीर्थंकर आदि प्रत्यक्ष ज्ञानी अथवा श्रुतज्ञानी मुनियों के निकट से सूनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि जीव-हिंसा-ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।
फिर भी मनुष्य जीवन, मान, वंदना आदि हेतुओं में आसक्त हुए विविध प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय का समारंभ करते हैं । और अग्निकाय का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणों की भी हिंसा करते हैं। सूत्र-३८
मैं कहता हूँ - बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कूड़ा-कचरा आदि के आश्रित रहते हैं । कुछ सँपातिम प्राणी होते हैं जो उड़ते-उड़ते नीचे गिर जाते हैं । ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त होते हैं। शरीर का संघात होने पर अग्नि की उष्मा से मूर्छित हो जाते हैं। बाद में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
सूत्र-३९
जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र-प्रयोग करता है, वह इन आरंभ-समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है । जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरंभ का ज्ञाता हो जाता है। जिसने यह अग्नि-कर्म-समारंभ भली भाँति समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात-कर्मा है । ऐसा मैं कहता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 8