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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-२१
वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत अर्थात् समर्पित होते हैं। सूत्र-२२
मुनि की आज्ञा से लोक को-अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बना दे । संयत रहे सूत्र - २३
मैं कहता हूँ मुनि स्वयं, लोक-अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप न करे । न अपनी आत्मा का अपलाप करे । जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता है । जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। सूत्र - २४
तू देख! सच्चे साधक हिंसा (अप्काय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको अनगार घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों द्वारा जल सम्बन्धी आरंभ-समारंभ करते हुए जल-काय के जीवों की हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं।
इस विषय में भगवान ने परिज्ञा का निरूपण किया है। अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए दुःखों का प्रतिकार करने के लिए कोई स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, दूसरों से भी अप्काय की हिंसा करवाता है और अप्काय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है । यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है।
वह साधक यह समझते हुए संयम-साधन में तत्पर हो जाता है।
भगवान से या अनगार मुनियों से सूनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे-यह अप्कायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है।
फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त होता है । जो कि वह तरह-तरह के शस्त्रों से उदककाय की हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर अप्कायिक जीवों की हिंसा करता है । वह केवल अप्कायिक जीवों की ही नहीं, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है।
मैं कहता हूँ-जल के आश्रित अनेक प्रकार के जीव रहते हैं। सूत्र-२५
हे मनुष्य ! इस अनगार-धर्म में, जल को जीव कहा है । जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख सूत्र - २६
भगवान ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताए हैं। सूत्र-२७
जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान भी है। सूत्र-२८
हमें कल्पता है । अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं। हम पीने तथा नहाने के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं। सूत्र - २९
__इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। सूत्र-३०
अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय ही हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते। सूत्र-३१
जो यहाँ, शस्त्र-प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों से अनभिज्ञ है । जो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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