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आगम सूत्र १, अंगसूत्र - १, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन / उद्देश / सूत्रांक
अध्ययन - १ - उद्देशक - २
सूत्र - १४
जो मनुष्य आते है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण रहता है। क्योंकि वह अज्ञानी जो है । अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीड़ा का अनुभव करता है । काम, भोग व सुख के लिए आतुर बने प्राणी स्थान-स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप देते रहते हैं । यह तू देख ! समझ !
सूत्र - १५
पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं । तू देख ! आत्मसाधक, लज्जमान है - (हिंसा से स्वयं को संकोच करता हुआ संयममय जीवन जीता है ।) कुछ साधु वेषधारी हम गृहत्यागी हैं ऐसा कथन करते हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीसम्बन्धी हिंसा -क्रिया में लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदारित अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
सूत्र - १६
इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है। कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा-सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है । सूत्र - १७
वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। उसकी अबोधि के लिए होती है। वह साधक हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, संयम-साधना में तत्पर जाता है। कुछ मनुष्यों के या अनगार मुनियों के समीप धर्म सूनकर यह ज्ञात होता है कि, यह जीव हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है और यही नरक है।' (फिर भी) जो मनुष्य सुख आदि के लिए जीवहिंसा में आसक्त होता है, वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी - सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक व की हिंसा करता है, अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।
मैं कहता हूँ-जैसे कोई किसी के पैर में, टखने पर, घूटने, उरु, कटि, नाभि, उदर, पसली पर, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधे, भूजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होठ, दाँत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, आँख, भौंहे, ललाट और शिर का भेदन छेदन करे, (तब उसे जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा पृथ्वीकायिक जीवों को होती है ।)
जैसे कोई किसी को गहरी चोट मारकर, मूर्च्छित कर दे, या प्राण- वियोजन ही कर दे, उसे जैसी कष्टानुभूति होती है, वैसी ही पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना समझना चाहिए ।
जो यहाँ (लोकमें) पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र समारंभ करता है, वह वास्तव में इन आरंभों से अनजान है ।
सूत्र - १८
जो पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता, वह वास्तव में इन आरंभों का ज्ञाता है । यह (पृथ्वीकायिक जीवों की अव्यक्त वेदना) जानकर बुद्धिमान मनुष्य न स्वयं पृथ्वीकाय का समारंभ करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारंभ करवाए और न उसका समारंभ करने वाले का अनुमोदन करे । जिसने पृथ्वीकाय सम्बन्धी समारंभ को जान लिया वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) मुनि होता है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - १ - उद्देशक- ३
सूत्र १९, २०
मैं कहता हूँ - जिस आचरण से अनगार होता है । जो ऋजुकृत् हो, नियाग-प्रतिपन्न-मोक्ष मार्ग के प्रति एकनिष्ठ होकर चलता हो, कपट रहित हो ।
जिस श्रद्धा के साथ संयम पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे । विस्रोतसिका-अर्थात् लक्ष्य के प्रति शंका व चित्त की चंचलता के प्रवाहमें न बहें, शंका का त्याग कर दे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (आचार)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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