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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
[१] आचारअंगसूत्र-१- हिन्दी अनुवाद
श्रुतस्कन्ध-१ अध्ययन-१-शस्त्रपरिज्ञा
उद्देशक-१ सूत्र-१,२
आयुष्मन् ! मैंने सूना है। उन भगवान (महावीर स्वामी) ने यह कहा है- ..... संसारमें कुछ प्राणियों को यह संज्ञा (ज्ञान) नहीं होती । जैसे - " मैं पूर्व दिशा से आया हूँ, दक्षिण दिशा से आया हूँ, पश्चिम दिशा से आया हूँ, उत्तर दिशा से आया हूँ, ऊर्ध्व दिशा से आया हूँ, अधो दिशा से आया हूँ अथवा विदिशा से आया हूँ। सूत्र-३
इसी प्रकार कुछ प्राणियों को यह ज्ञान नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक है अथवा नहीं? मैं पूर्व जन्म में कौन था? मैं यहाँ से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा? सूत्र-४
कोई प्राणी अपनी स्वमति, स्वबुद्धि से अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानियों के वचन से, अथवा उपदेश सूनकर यह जान लेता है, कि मैं पूर्वदिशा, या दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व अथवा अन्य किसी दिशा या विदिशा से आया हूँ। कुछ प्राणियों को यह भी ज्ञात होता है - मेरी आत्मा भवान्तर में अनुसंचरण करने वाली है, जो इन दिशाओं, अनुदिशाओं में कर्मानुसार परिभ्रमण करती है। जो इन सब दिशाओं और विदिशाओं में गमनागमन करती है, वही मैं (आत्मा) हूँ। सूत्र-५
(जो उस गमनागमन करनेवाली परिणामी नित्य आत्मा जान लेता है। वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है। सूत्र-६,७
(वह आत्मवादी मनुष्य यह जानता/मानता है कि)-मैंने क्रिया की थी। मैं क्रिया करवाता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूँगा । लोक-संसार में ये सब क्रियाएं हैं, अतः ये सब जानने तथा त्यागने योग्य हैं। सूत्र-८-१०
यह पुरुष, जो अपरिज्ञातकर्मा है वह इन दिशाओं व अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है । अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं/अनुदिशाओं में जाता है । अनेक प्रकार की जीव-योनियों को प्राप्त होता है । ..... वहाँ विविध प्रकार के स्पर्शों का अनुभव करता है। ..... इस सम्बन्धमें भगवान ने परिज्ञा विवेक का उपदेश किया है। सूत्र-११
अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा व यश के लिए, सम्मान की प्राप्ति के लिए, पूजा आदि पाने के लिए, जन्मसन्तान आदि के जन्म पर, अथवा स्वयं के जन्म निमित्त से, मरण-सम्बन्धी कारणों व प्रसंगों पर, मुक्ति के प्रेरणा या लालसा से, दुःख के प्रतीकार हेतु-रोग, आतंक, उपद्रव आदि मिटाने के लिए। सूत्र-१२
लोक में (उक्त हेतुओं से होने वाले) ये सब कर्मसमारंभ के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं। सूत्र-१३
लोक में ये जो कर्मसमारंभ के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है वही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है । ऐसा मैं कहता हूँ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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