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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-४- भाषाजात
उद्देशक-१ सूत्र-४६६
संयमशील साधु या साध्वी इन वचन (भाषा) के आचारों को सूनकर, हृदयंगम करके, पूर्व-मुनियों द्वारा अनाचरित भाषा-सम्बन्धी अनाचारों को जाने । जो क्रोध से वाणी का प्रयोग करते हैं, जो अभिमानपूर्वक, जो छलकपट सहित, अथवा जो लोभ से प्रेरित होकर वाणी का प्रयोग करते हैं, जानबूझकर कठोर बोलते हैं, या अनजाने में कठोर वचन कह देते हैं ये सब भाषाएं सावध हैं, साधु के लिए वर्जनीय हैं । विवेक अपनाकर साधु इस प्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे । वह साधु या साध्वी ध्रुव भाषा को जानकर उसका त्याग करे, अध्रुव भाषा को भी जानकर उसका त्याग करे। वह अशनादि आहार लेकर ही आएगा, या आहार लिए बिना ही आएगा, वह आहार करके ही आएगा, या आहार किये बिना ही जाएगा, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, वह आता है, अथवा नहीं आता है, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा; वह यहाँ भी आया था, अथवा वह यहाँ नहीं आया था; वह यहाँ अवश्य आता है, अथवा कभी नहीं आता, अथवा वह यहाँ अवश्य आएगा या कभी नहीं आएगा।
संयमी साधु या साध्वी विचारपूर्वक भाषा समिति से युक्त निश्चितभाषी एवं संयत होकर भाषा का प्रयोग करे जैसे कि यह १६ प्रकार के वचन हैं-एकवचन, द्विवचन, बहुवचन, स्त्रीलिंग-कथन, पुल्लिंग-कथन, नपुंसक-लिंगकथन, अध्यात्म-कथन, उपनीत-कथन, अपनीत-कथन, अपनीताऽपनीत-कथन, अपनीतोपनीत-कथन, अतीतवचन, वर्तमानवचन, अनागत वचन, प्रत्यक्षवचन और परोक्षवचन ।
यदि उसे एकवचन बोलना हो तो वह एकवचन ही बोले, यावत् परोक्षवचन पर्यन्त जिस किसी वचन को बोलना हो, तो उसी वचन का प्रयोग करे । जैसे-यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह नपुंसक है, यह वही है या यह कोई अन्य है, इस प्रकार विचारपूर्वक निश्चय हो जाए, तभी निश्चयभाषी हो तथा भाषा-समिति से युक्त होकर संयत भाषामें बोले
इन पूर्वोक्त भाषागत दोष-स्थानों का अतिक्रमण करके (भाषाप्रयोग करना चाहिए)। साधु को भाषा के चार प्रकारों को जान लेना चाहिए। सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा(व्यवहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है।
जो मैं यह कहता हूँ उसे भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर भगवान हो चूके हैं, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर भगवान हैं और भविष्य में जो भी तीर्थंकर भगवान होंगे, उन सबने इन्हीं चार प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया है, प्रतिपादन करते हैं और प्रतिपादन करेंगे अथवा उन्होंने प्ररूपण किया है, प्ररूपण करते हैं और प्ररूपण करेंगे। तथा यह भी उन्होंने प्रतिपादन किया है कि ये सब भाषाद्रव्य अचित्त हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं, तथा चयउपचय वाले एवं विविध प्रकार के परिणमन धर्म वाले हैं। सूत्र - ४६७
संयमशील साधु-साध्वी को भाषा के सम्बन्ध में यह भी जान लेना चाहिए कि बोलने से पूर्व भाषा अभाषा होती है, बोलते समय भाषा भाषा कहलाती है और बोलने के पश्चात् बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है।
जो भाषा सत्या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा सत्यामृषा है अथवा जो भाषा असत्यामृषा है, इन चारों भाषाओं में से (केवल सत्या और असत्यामृषा का प्रयोग ही आचरणीय है ।) उसमें भी यदि सत्यभाषा सावध, अनर्थदण्डक्रियायुक्त, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, कठोर, कर्मों की आस्रवकारिणी तथा छेदनकारी, भेदनकारी, परितापकारिणी, उपद्रवकारिणी एवं प्राणियों का विघात करने वाली हो तो विचारशील साधु को मन से विचार करके ऐसी सत्यभाषा का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए । जो भाषा सूक्ष्म सत्य सिद्ध हो तथा जो असत्यामृषा भाषा हो, साथ ही असावध, अक्रिय यावत् जीवों के लिए अघातक हो तो संयमशील साधु मन से पहले पर्यालोचन करके इन्हीं दोनों भाषाओं का प्रयोग करे। सूत्र-४६८
साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हों और आमंत्रित करने पर भी वह न सूने तो उसे इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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