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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक चले अथवा दोनों पैरों को तिरछे-टेढ़े रखकर चले । यदि कोई दूसरा साफ मार्ग हो, तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु जीवजन्तुओं से युक्त सरल मार्ग से न जाए । साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यह जाने कि मार्ग में बहुत से त्रस प्राणी हैं, बीज बिखरे हैं, हरियाली है, सचित्त पानी है या सचित्त मिट्टी है, जिसकी योनि विध्वस्त नहीं हुई है, ऐसी स्थिति में दूसरा निर्दोष मार्ग हो तो साधु-साध्वी उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाएं, किन्तु उस सरल मार्ग से न जाए। सूत्र-४४९
ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में विभिन्न देशों की सीमा पर रहने वाले दस्युओं के, म्लेच्छों के या अनार्यों के स्थान मिले तथा जिन्हें बड़ी कठिनता से आर्यों का आचार समझाया जा सकता है, जिन्हें दुःख से, धर्मबोध देकर अनार्यकर्मों से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल में जागने वाले, कुसमय में खाने-पीने वाले मनुष्यों के स्थान मिले तो अन्य ग्राम आदि में विहार हो सकता है या अन्य आर्यजनपद विद्यमान हो, तो प्रासुक-भोजी साधु उन म्लेच्छादि के स्थान में विहार करने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे।
केवली भगवान कहते हैं-वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वे म्लेच्छ अज्ञानी लोग साधु को देखकरयह चोर है, यह हमारे शत्रु के गाँव से आया है, यों कहकर वे उस भिक्षु को गाली-गलौच करेंगे, कोसेंगे, रस्सों से बाँधेगे, कोठरी में बंद कर देंगे, डंडों से पीटेंगे, अंगभंग करेंगे, हैरान करेंगे, यहाँ तक कि प्राणों से रहित भी कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त वे दुष्ट उसके वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे । इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश है कि भिक्षु उन सीमा-प्रदेशवर्ती दस्युस्थानों तथा म्लेच्छ, अनार्य, दुर्बोध्य आदि लोगों के स्थानों में, अन्य आर्य जनपदों तथा आर्य ग्रामों के होते हुए जाने का संकल्प भी न करे । अतः इन स्थानों को छोड़कर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। सूत्र - ४५०
साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यह जाने कि ये अराजक प्रदेश है, या यहाँ केवल युवराज का शासन है, जो कि अभी राजा नहीं बना है, अथवा दो राजाओं का शासन है, या परस्पर शत्रु दो राजाओं का राज्याधिकार है, या धर्मादि-विरोधी राजा का शासन है, ऐसी स्थिति में विहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते, इस प्रकार के प्रदेशों में विहार करने की दृष्टि से गमन करने का विचार न करे।
केवली भगवान ने कहा है-ऐसे अराजक आदि प्रदेशों में जाना कर्मबन्ध का कारण है । क्योंकि वे अज्ञानी जन साधु के प्रति शंका कर सकते हैं कि यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु राजा के देश से आया है तथा इस प्रकार की कुशंका से ग्रस्त होकर वे साधु को अपशब्द कह सकते हैं, मार-पीट सकते हैं, यहाँ तक कि उसे जान से भी मार सकते हैं । इसके अतिरिक्त उसके वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद-प्रोंछन आदि उपकरणों को तोड़फोड़ सकते हैं, लूँट सकते हैं और दूर फेंक सकते हैं । इन सब आपत्तियों की संभावना से तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा साधुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश निर्दिष्ट है कि साधु अराजक आदि प्रदेशों में जाने का संकल्प न करे । अतः साधु को इन प्रदेशों को छोड़कर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। सूत्र-४५१
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि आगे लम्बा अटवी-मार्ग है । यदि उस अटवी के विषय में वह यह जाने कि यह एक, दो, तीन, चार, या पाँच दिनों में पार किया जा सकता है अथवा पार किया जा सकता है, तो विहार के योग्य अन्य मार्ग होते, उस अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर अटवी-मार्ग से जाने का विचार न करे । केवली भगवान कहते हैं ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाने पर, मार्ग में कोई लीलन-फूलन, बीज, हरियाली, सचित्त पानी और अविध्वस्त मिट्टी आदि के होने से संयम की विराधना होनी संभव है । इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरादि ने पहले
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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