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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-३-ईया
उद्देशक-१ सूत्र-४४५
वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहुत-से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत-से बीज अंकुरित हो जाते हैं, मार्गों में बहुत-से प्राणी, बहुत-से बीज उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत हरियाली हो जाती है, ओस और पानी बहुत स्थानों में भर जाते हैं, पाँच वर्ण की काई, लीलण-फूलण आदि हो जाती है, बहुत-से स्थानों में कीचड़ या पानी से मिट्टी गीली हो जाती है, कई जगह मकड़ी के जाले हो जाते हैं । वर्षा के कारण मार्ग रूक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जा सकता। इस स्थिति को जानकर साधु को (वर्षाकाल में) एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षाकाल में यथावसर प्राप्त वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करना चाहिए। सूत्र -४४६
वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी को उस ग्राम, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, पट्टण, द्रोणमुख, आकर, निगम, आश्रम, सन्निवेश या राजधानी की स्थिति भलीभाँति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम, नगर यावत् राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि न हो, मलमूत्र त्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, और न प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार-पानी ही सुलभ हो, जहाँ बहुत-से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी लोग आए हुए हों, और भी दूसरे आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों में भीड़ हो, साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों से अपने स्थान से सुखपूर्वक नीकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम, नगर आदि में वर्षाकाल प्रारंभ हो जाने पर भी साधु-साध्वी वर्षावास व्यतीत न करे।
वर्षावास करने वाला साधु या साध्वी यदि ग्राम यावत् राजधानी के सम्बन्ध में यह जाने कि इस ग्राम यावत् राजधानी में स्वाध्याय-योग्य विशाल भूमि है, मल-मूत्र-विसर्जन के लिए विशाल स्थण्डिलभूमि है, यहाँ पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ है, साथ ही प्रासुक, निर्दोष एवं एषणीय आहार-पानी भी सुलभ है, यहाँ बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आये हुए नहीं हैं और न आएंगे, यहाँ के मार्गों पर जनता की भीड़ भी इतनी नहीं है, जिससे कि साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों के लिए अपने स्थान से नीकलना और प्रवेश करना कठिन हो, स्वाध्यायादि क्रिया भी निरुपद्रव हो सके, तो ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में साधु या साध्वी संयमपूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। सूत्र - ४४७
साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल व्यतीत हो चूका है, अतः वृष्टि न हो तो चातुर्मासिक काल समाप्त होते ही अन्यत्र विहार कर देना चाहिए । यदि कार्तिक मास में वृष्टि हो जाने से मार्ग आवागमन के योग्य न रहे तो हेमन्त ऋतु के पाँच या दस दिन व्यतीत हो जाने पर वहाँ से विहार करना चाहिए । यदि मार्ग बीच-बीच मे अंडे, बीज, हरियाली, यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो, अथवा वहाँ बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि आए हुए न हों, न ही आने वाले हों, तो यह जानकर साधु ग्रामानुग्राम विहार न करे ।
यदि साधु या साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो चूके हैं, और वृष्टि हो जाने से मुनि को हेमन्त ऋतु के पाँच अथवा दश दिन तक वहीं रहने के पश्चात् अब मार्ग ठीक हो गए हैं, बीच-बीच में अब अण्डे यावत् मकड़ी के जाले आदि नहीं हैं, बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण आदि भी उन मार्गों पर आने-जाने लगे हैं, या आने वाले भी हैं, तो यह जानकर साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। सूत्र - ४४८
साधु या साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार करते हुए अपने सामने की युगमात्र भूमि को देखते हुए चले और मार्ग में त्रसजीवों को देखे तो पैर के अग्रभाग को उठाकर चले । यदि दोनों ओर जीव हों तो पैरों को सिकोड़ कर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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