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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को यतनापूर्वक बिछाए। सूत्र-४४२ साधु या साध्वी अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक बिछाकर उस शय्या-संस्तारक पर चढ़ना चाहे तो उस पर चढ़ने से पूर्व मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भली-भाँति प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस शय्यासंस्तारक पर आरूढ़ हो । उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर आरूढ़ होकर यतनापूर्वक उस पर शयन करे। सूत्र-४४३ साधु या साध्वी उस अतिप्रासुक शय्यासंस्तारक पर शयन करते हुए परस्पर एक दूसरे को, अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, अपने पैरों से दूसरे के पैर की और अपने शरीर से दूसरे के शरीर को आशातना नहीं करना चाहिए। अपितु एक दूसरे की आशातना न करते हुए यतनापूर्वक सोना चाहिए । वह साधु या साध्वी उच्छ्वास या निश्वास लेत हुए, खाँसते हुए, छींकते हुए, या उबासी लेते हुए, डकार लेते हुए, अथवा अपानवायु छोड़ते हुए पहले ही मुँह या गुदा को हाथ से अच्छी तरह ढाँक कर यतना से उच्छ्वास आदि ले यावत् अपानवायु को छोड़े। सूत्र-४४४ संयमशील साधु या साध्वी को किसी समय सम शय्या मिले या विषम मिले, कभी हवादार निवास-स्थान प्राप्त हो या निर्वात हो, किसी दिन धूल से भरा उपाश्रय मिले या स्वच्छ मिले, कदाचित् उपसर्गयुक्त शय्या मिले या उपसर्ग रहित मिले । इन सब प्रकार की शय्याओं के प्राप्त होने पर जैसी भी सम-विषम आदि शय्या मिली, उसमें समचित्त होकर रहे, मन में जरा भी खेद या ग्लानि का अनुभव न करे। ___ यही (शय्यैषणा-विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी का सम्पूर्ण भिक्षुभाव है, कि वह सब प्रकार से ज्ञान-दर्शनचारित्र और तप के आचार से युक्त होकर सदा समाहित होकर विचरण करने का प्रयत्न करता है। - ऐसा मैं कहता हूँ अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 78
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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