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________________ आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार' श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक रुचि से प्रेरित होकर उन्होंने किसी एक ही प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि मकान जहाँ-तहाँ बनवाए हैं। उन मकानों का निर्माण पृथ्वीकाय के यावत् त्रसकाय के महान संरम्भ समारम्भ और आरंभ से तथा नाना प्रकार के महान् पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है जैसे कि साधु वर्ग के लिए मकान पर छत आदि डाली गई है, उसे लीपा गया है, संस्तारक कक्ष को सम बनाया गया है, द्वार के ढक्कन लगाया गया है, इन कार्यों में शीतल सचित्त पानी पहले ही डाला गया है, अग्नि भी पहले प्रज्वलित की गई है । जो निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के आरम्भ-निर्मित लोहकारशाला आदि मकानों में आकर रहते हैं, भेंट रूप में प्रदत्त छोटे-बड़े गृहों में ठहरते हैं, वे द्विपक्ष (द्रव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का सेवन करते हैं । यह शय्या महा-सावधक्रिया से युक्त होती है। सूत्र-४२० __ इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कतिपय गृहपति यावत् नौकरानियाँ श्रद्धालु व्यक्ति हैं । वे साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में सून चूके हैं, वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित भी हैं, किन्तु उन्होंने अपने निजी प्रयोजन के लिए यत्र-तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि । उनका निर्माण पृथ्वीकाय के यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ एवं आरम्भ से तथा नाना प्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है । जो पूज्य निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वासस्थानों में आकर रहते हैं, अन्यान्य प्रशस्त उपहाररूप पदार्थों का उपयोग करते हैं वे एकपक्ष (भाव के साधुरूप) कर्म का सेवन करते हैं । हे आयुष्मन् ! यह शय्या अल्पसावधक्रिया रूप होती है । यह (शय्यैषणाविवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए समग्रता है। अध्ययन-२ - उद्देशक-३ सूत्र-४२१ वह प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है । और न ही इन सावद्यकर्मों के कारण उपाश्रय शुद्ध मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने-पोतने से, कहीं संस्तारकभूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार बनाकर देने से एषणादोष लगाने के कारण । कईं साधु विहार चर्या-परायण हैं, कईं कायोत्सर्ग करने वाले हैं, कईं स्वाध्यायरत हैं, कईं साधु शय्यासंस्तारक एवं पिण्डपात की गवेषणा में रत रहते हैं । इस प्रकार संयम या मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए कितने ही सरल एवं निष्कपट साधु माया न करते हुए उपाश्रय के यथावस्थित गुण-दोष बतला देते हैं। कईं गृहस्थ पहले से साधु को दान देने के लिए उपाश्रय बनवाकर रख लेते हैं, फिर छलपूर्वक कहते हैं- यह मकान हमने चरक आदि परिव्राजकों के लिए रख छोड़ा है, या यह मकान, हमने पहले से अपने लिए बनवा कर रख छोड़ा है, अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीजों को देने के लिए रखा है, दूसरों ने भी पहले इस मकान का उपयोग कर लिया है, नापसंद होने के कारण बहुत पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है। पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस मकान का उपयोग कर सकते हैं। विचक्षण साधु इस प्रकार के छल को सम्यक् तया जानकर उस उपाश्रय में न ठहरे। प्रश्न गृहस्थों के पूछने पर जो साधु इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता है, क्या वह सम्यक् है ?" हाँ, वह सम्यक् है । सूत्र - ४२२ वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा है, या छोटे द्वारों वाला है, तथा नीचा है, या नित्य जिसके द्वार बंध रहते हैं, तथा चरक आदि परिव्राजकों से भरा हुआ है। इस प्रकार के उपाश्रय में वह रात्रि में या विकाल में भीतर से बाहर नीकलता हुआ या भीतर प्रवेश करता हुआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैर से संयम पूर्वक नीकले या प्रवेश करे । केवली भगवान कहते हैं (अन्यथा) यह कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वहाँ पर शाक्य आदि मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74
SR No.034667
Book TitleAgam 01 Acharang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 01, & agam_acharang
File Size4 MB
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