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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पत्नी, उसकी पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास-दासियाँ या नौकर-नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सूना है, किन्तु उन्होंने यह सून रखा है कि साधु-महात्माओं को निवास के लिए स्थान आदि का दान देने से स्वर्गादि फल मिलता है । इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं अभिरूचि रखते हुए उन गृहस्थों ने बहुत से शाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि-दरिद्रों और भिखारियों आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवा दिए हैं। जैसे कि लुहार आदि की शालाएं, देवालय की पार्श्ववर्ती धर्मशालाएं, सभाएं, प्रपाएं, दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, रथादि बनाने के कारखाने, चूने के कारखाने, दर्भ, चर्म एवं वल्कल के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ-कर्मशाला, श्मशान भूमि में बने हुए घर, पर्वत पर बने हुए मकान, पर्वत की गुफा से निर्मित आवासगृह, शान्तिकर्मगृह, पाषाणमण्डल, उस प्रकार के गृहस्थ निर्मित आवासस्थानों में, निर्ग्रन्थ आकर ठहरते हैं, तो वह शय्या अभिक्रान्तक्रिया से युक्त हो जाती है। सूत्र-४१५
हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु होते हैं, जैसे कि गृहपति यावत् नौकरानियाँ। निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह । ऐसे लोहकारशाला यावत् भूमिगृहों में चरकादि परिव्राजक शाक्यादि श्रमण इत्यादि पहले नहीं ठहरे हैं । ऐसे मकानों में अगर निर्ग्रन्थ श्रमण आकर पहले ठहरते हैं, तो वह शय्या अनभिक्रान्तक्रिया युक्त हो जाती है। सूत्र-४१६
इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धा भक्ति से युक्त जन हैं, जैसे कि गृहपति यावत् उसकी नौकरानियाँ । उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि ये श्रमण भगवंत शीलवान् यावत् मैथुनसेवन से उपरत होते हैं, इन भगवंतों के लिए आधाकर्मदोष से युक्त उपाश्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है । अतः हमने अपने प्रयोजन के लिए जो ये लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि बनवाए हैं, वे सब हम इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने प्रयोजन के लिए बाद में दूसरे लोहकारशाला आदि बना लेंगे।
गृहस्थों का इस प्रकार का वार्तालाप सूनकर तथा समझकर भी जो निर्ग्रन्थ श्रमण गृहस्थों द्वारा प्रदत्त उक्त प्रकार के लोहकारशाला आदि मकानों में आकर ठहरते हैं, वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप घरों का उपयोग करते हैं, तो आयुष्मन् शिष्य ! उनकी वह शय्या वर्ण्यक्रिया से युक्त हो जाती है। सूत्र- ४१७
इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालुजन होते हैं, जैसे कि गृहपति, यावत् दासियाँ आदि । वे उनके आचार-व्यवहार से तो अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिक्षाचरों को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से जहाँ-तहाँ लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि विशाल भवन बनवाते हैं । जो निर्ग्रन्थ साधु उस प्रकार के लोहकारशाला आदि भवनों में आकर रहते हैं, वहाँ रहकर वे अन्यान्य छोटे-बड़े उपहार रूप में प्रदत्त घरों का उपयोग करते हैं तो वह शय्या उनके लिए महावय॑क्रिया से युक्त हो जाती है। सूत्र - ४१८
इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालु व्यक्ति होते हैं, जैसे कि-गृहपति, उसकी पत्नी यावत् नौकरानियाँ आदि । वे उनके आचार-व्यवहार से तो अज्ञात होते हैं, लेकिन श्रमणों के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से युक्त होकर सब प्रकार के श्रमणों के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह बनवाते हैं। सभी श्रमणों के उद्देश्य से निर्मित उस प्रकार के मकानों में जो निर्ग्रन्थ श्रमण आकर ठहरते हैं, तथा गृहस्थों द्वारा यावत् गृहों का उपयोग करते हैं, उनके लिए वह शय्या सावधक्रिया दोष से युक्त हो जाती है।
सूत्र-४१९
इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में गृहपति, उनकी पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू आदि कईं श्रद्धा-भक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति हैं उन्होंने साधुओं के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो जाना-सूना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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